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________________ गुणिषु प्रमोदम् । ३५ मनुष्य को संसार के साथ किस प्रकार के सम्बन्ध कायम करने हैं, दूसरों के प्रति कैसी भावना रखनी है, यह बात मनुष्य सहज ही में नहीं समझ पाता, इसी कारण मनुष्य की जिन्दगी भार - स्वरूप हो जाती है, निष्फल हो जाती है। मगर आनन्द अपने जीवन को सफल बनाने का इच्छुक है। सत्पुरुषों का दर्शन करने की इच्छा के मूल में किसी प्रकार की सांसारिक वांछा नहीं होनी चाहिए, तभी मनुष्य अपने विकास के मार्ग पर आगे बढ़ सकेगा । तो, मनुष्य को चाहिए कि जब कभी भी वह किसी सत्पुरुष के दर्शन करने के लिए जाए तो इसी चैतन्य भाव को लेकर जाए कि मैं अपने जीवन के विकास के लिए जा रहा हूँ । आत्मा के साथ लगे हुए जिन विकारों के कारण मैं अनादि काल से जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा हूँ–उनको आत्मा से कैसे दूर किया जाए, अपने इस प्रश्न का समाधान करने के लिए मैं जा रहा हूँ। प्राचीनकाल में भी लोग सत्पुरुषों के दर्शन को जाया करते थे और आज भी जाते हैं। जब जाते हैं तो उनका कोई संकल्प होता है। उनका वह संकल्प दुनियावी भी हो सकता है। मगर जो दुनियादारी का संकल्प लेकर जाते हैं, वे विकारों को कम करने की दृष्टि न रख कर बढ़ाने की दृष्टि रखते हैं। तो, ऐसे लोग किसी महापुरुष के पास जाकर भी कोई महाप्रकाश लेकर नहीं लौटते । जब तक संसार की दुर्वासनाएँ बनी रहेंगी और दुनियादारी की दुकान चलाने के लिए सन्त-समागम और धर्म-कर्म किया जाएगा, तब तक मन में प्रकाशमान ज्ञानचेतना नहीं होगी । महापुरुषों के पास पहुँच कर भी खाली हाथ लौटना होगा । आनन्द दुनियादारी का फल नहीं चाहता । वह सोचता है, कि भगवान् का दर्शन करने से मुझे 'महान् ' फल की प्राप्ति होगी। वहाँ मैं जीवन की सही राह तलाश करूँगा। और आनन्द इतना बड़ा उद्देश्य लेकर भगवान् की सेवा में पहुँचता है। जब भगवान के चरणों में वह पहुँच जाता है, तब उसे सच्चा आनन्द मिलता है। सच्चा आनन्द कहाँ है ? क्या प्रभु के चरणों में रखा है, सच्चा आनन्द ? नहीं, प्रभु के चरणों में नहीं है। सच्चा आनन्द तो अपने आप में है । अतएव आत्म-दर्शन से ही सच्चा आनन्द प्राप्त होता है। प्रभु की जो आज्ञाएँ हैं, उपदेश हैं, उसको साधक जब अपने मन में उतारता है, तब उसे आत्म-दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है। आनन्द जैन नहीं था। उसने इससे पूर्व भगवान् महावीर के दर्शन कभी नहीं किए थे। किन्तु आज वह दर्शन करने के लिए चला तो सोचना होगा, इसमें भगवान् अधिक निमित्त हैं या भक्त ज्यादा निमित्त हैं? भगवान् तो भगवान् ही हैं। उनका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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