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________________ ३६ | उपासक आनन्द आकर्षण बड़ा आकर्षण है और वह श्रद्धालु बनाने वाला है। बड़े-बड़े राजामहाराजा और धनकुवेर अपनी श्रद्धा के सुमन उनके चरणों में अर्पित करते थे और हजारों आदमी उनके दर्शन के लिए उमड़ पड़ते थे। यह सब देख-सुन कर आनन्द के चित्त में भी लहर उठी, कि मैं भी जाऊँ और दर्शन करूँ ! इस रूप में भगवान् भी आनन्द के जाने में निमित्त बनते हैं। परन्तु भगवान् ने आनन्द के पास कोई संदेशा नहीं भेजा, कि मैं भगवान् हूँ और तुम मेरे पास आओगे तो तुम्हारी आत्मा का कल्याण हो जाएगा। आनन्द के हृदय पर इस रूप में भगवान् की छाप नहीं पड़ी। उसने तो भगवान् की महिमा सुनी और श्रेष्ठ नागरिकों को भक्ति-पूर्वक सेवा में उपस्थित होने के लिए जाते देखा तो जाने का निश्चय कर लिया। भगवान् का आकर्षण महान् होने पर भी भक्तों का आकर्षण भी बड़ा है। जो भगवान् की महिमा सुनेंगे और भगवान् की सेवा में एक बार उपस्थित हो जाएँगे, वे भगवान् की महत्ता को प्रत्यक्ष ही अनुभव करने लगेंगे, किन्तु उनकी महिमा कुछ तो भक्तों पर भी निर्भर है ही । इसीलिए तो आचार्य समन्तभद्र ने कहा हैन धर्मो धार्मिकैर्विना - धर्म के अनुयायियों पर धर्म निर्भर है। साधारण जनता में मौलिक रूप से धर्म के सिद्धान्तों का अध्ययन करने और समझने की योग्यता नहीं होती। ऐसा करना तो गिने-चुने विद्वानों का ही काम है 1 आम जनता किसी भी धर्म के अनुगामियों के व्यवहार को देख कर ही उनके धर्म के विषय में अनुमान लगाया करती है। जिस धर्म के अनुयायियों का आचरण प्रामाणिक, नीतिपूर्ण और सुन्दर होता है, लोग उस धर्म को भी अच्छा समझने लगते हैं और जिस धर्म को मानने वाले लोग अप्रामाणिक और अन्यायी होते हैं, उनके धर्म को भी वैसा ही समझ लेते हैं। इस रूप में धार्मिक पुरुष अपने धर्म का प्रतिनिधि है। आनन्द प्रभु के चरणों में पहुँच सका, इसका कारण भगवान् तो हैं ही, पर भक्त भी हैं। आप जैसे गृहस्थ भक्तों ने उसे प्रभु के चरणों में पहुँचा दिया। भगवान् पधारे हैं तो भक्तों को भी अपना पार्ट अदा करना चाहिए और इस प्रकार भगवान् तो पुजते हैं सो पुजते ही हैं परन्तु पुजारी भी उन्हें पुजवाते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण बात है। भगवान् हों तो क्या, आचार्य हों तो क्या, और साधु हों तो क्या, जनता के हृदय में श्रद्धा पैदा होनी चाहिए। हर्ष की लहर पैदा होनी चाहिए और भक्ति की लहर पैदा होनी चाहिए। हमने इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को भुला दिया है और यही कारण है, कि हम अपनी श्रद्धा किसी एक केन्द्र में एकत्रित नहीं कर सकते। आज जनता की श्रद्धा बिखर गई है। जब तक वह एक केन्द्र में इकट्ठी, नहीं होगी -एक जगह स्थापित नहीं की जाएगी, वह धर्म के वृक्ष को पनपने नहीं देगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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