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________________ मत पच्चीस-सौ वर्ष पहले की बात है, भगवान् महावीर के समय में वाणिज्य ग्राम नामक एक नगर था। इस नगर में आनन्द गाथा-पति नाम का एक अत्यन्त समृद्ध गृहस्थ रहता था, उसके पास चालीस सहस्र गायें और बहु-संख्यक भैसें तथा बकरियाँ थीं। पाँच-सौ हलों की खेती होती थी। आनन्द बड़ा उदार था, उसने मानवता का वास्तविक अर्थ और उद्देश्य समझ कर उसे अपने जीवन में ढालने की पूरी चेष्टा की थी। वह अपने आप में सीमित नहीं था, वरन् उसने अपने आप को प्राणि-मात्र में बिखेर दिया था। जीवधारी मात्र के लिए उसकी आत्मीयता थी। सारी जनता आनन्द को अपना समझती थी। वह अत्यन्त नीति-निष्ठ, प्रामाणिक, विश्वास-पात्र और उदार था। अगणित जन उससे लाभ उठाते, सुख पाते और उसके गुण गाते थे। ऐसा होना ही चाहिए था, क्योंकि आनन्द की सहस्रों गायें, विपुल सम्पत्ति और विशाल शक्तिमता दूसरों के लिए ही थी। उसके लोक-प्रिय होने की यही सबसे बड़ी विशेषता थी। एक दिन भगवान् महावीर स्वामी पर्यटन करते-करते वाणिज्य ग्राम में भी पधारे। उनके शुभागमन की सूचना पाकर सर्वत्र धूम मच गई। सारी जनता दर्शन और प्रवचन श्रवण करने के लिए उमड़ पड़ी। आनन्द गाथा-पति जैन नहीं था, तथापि भगवान् महावीर के चरणों में उसकी अगाध श्रद्धा थी। वह बड़े भक्ति-भाव से प्रेरित प्रभावित होकर, सरलता और श्रद्धा को हृदय में लिये, प्रभु-दर्श के लिए चला। सभा-स्थल में पहुँच विधिवत् प्रभु की परिक्रमा की और विनम्रता पूर्वक श्रोतृ-समुदाय में बैठ गया। भगवान् महावीर के मुख से निःसृत प्रवचन के एक-एक शब्द को उसने बडे ध्यान से सना. और उस पर चिन्तन तथा मनन भी किया। आनन्द पर उस प्रवचन का ऐसा प्रभाव पड़ा, कि वह तत्काल प्रभु का अनन्य अनुयायी बन गया। वह सहृदय और श्रद्धा-सम्पन्न भक्त था। उसका जीवन इतना विकसित हो चुका था, कि वह भगवान् की सेवा में उपस्थित होते ही साधक-कोटि में पहुँच गया। श्रावक बनना भी ऊँची साधना है। प्रस्तुत पुस्तक का प्रधान विषय या मूल प्रसंग इतना ही है। इसी कथा को विद्वान लेखक ने अपने प्रवचनों का रूप दिया है। ये प्रवचन, व्यावर (अजमेर) के 'कुन्दन भवन' में लेखक द्वारा समय-समय पर दिये गये हैं। इन प्रवचनों की विशेषता यह है कि उनमें आनुषंगिक प्रसंगों की भी चर्चा बड़ी विवेचना और विशदता के साथ हुई है। श्रद्धा क्या है, वन्दना (अभिवादन) की प्राचीन विधि, सिद्धान्त-रक्षा, उद्देश्य-पालन, श्रवण, मनन और चिन्तन, मानव-जीवन-नीति गोपालन का मर्म, पुण्य-पाप की गुत्थी आदि अनेक महत्त्वपूर्ण और उपयोगी विषयों पर गम्भीरता पूर्वक विचार किया गया है। पुस्तक में जहाँ आनन्द गाथा-पति द्वारा, अपने को प्रभु चरणों में सश्रद्ध समर्पित कर देने की चारु चर्चा है, वहाँ उसमें विविध विषयों की व्याख्या भी बड़ी सुन्दर है। जैन ही नहीं, सब ही विचारों और धर्म सम्प्रदायों से सम्बन्ध रखने वाले पाठक इससे यथेष्ठ लाभ उठा सकते हैं। पुस्तक में मानवता तत्त्व बड़ी सरलता और सूक्ष्मता से समझाया गया है। आस्तिकवाद की व्यापक परिभाषा की है। निर्ग्रन्थ से क्या अभिप्राय है, इसके सम्बन्ध में बताया है, कि गाँठ-रहित होना ही 'निर्ग्रन्थ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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