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________________ है । जिसका हृदय और जिसकी वाणी दोनों स्वच्छ और निर्मल है, वही 'निर्ग्रन्थ' है। यानी जो जिसके भीतर है, वही उसके बाहर भी हो। मन, वचन और कर्म तीनों में समता या सामञ्जस्य होना ही 'निर्ग्रन्थ' भावना है। वासनाओं की वशवर्तिता का उल्लेख करते हुए विद्वान लेखक ने बताया है, कि वासनाओं में फँसकर जीवन इतना निःसार और निकृष्ट हो जाता है, कि वह अनेक रूपों में स्वतन्त्र होकर भी स्वतन्त्र नहीं रहता। पुस्तक के अनमोल प्रवचनों में सबसे अधिक बल मानवता और आत्म जागरण पर दिया गया है । वस्तुत: एक सच्चा साधक या श्रावक का शरीर मन या इन्द्रियों की परवाह न कर जब आत्मप्रेरणा की ओर ही प्रवृत्त होगा, तभी उसे आत्म जागृति का सुअवसर प्राप्त हो सकता है। अभिप्राय यह है, कि आत्मा के जगाने से ही मनुष्य का कल्याण होगा। कैसी सुन्दर सूक्ति और कितनी उत्कृष्ट भावना है। जो लोग स्वयं सुख-सागर में निमग्न होकर संकटग्रस्त पड़ोसी का चीत्कार या हा - हा कार नहीं सुनते, उनके कष्टों की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते, क्या वे मनुष्य कहे जा सकते हैं ? क्या उन्हें मानव कहना उचित होगा ? विश्व बन्धुत्व का भाव ही मानवता है । जो व्यवहार या जो बातें अपने अनुकूल नहीं, उन्हें दूसरों के लिए भी उचित या आवश्यक न समझो— उनके साथ भी प्रतिकूल व्यवहार न करो। यही मानवता का मर्म और यही धर्म का सार है। फिर मनुष्य, मनुष्य तक ही, अनुकूल व्यवहार करने में, क्यों सीमित रहे, उसे अपने पड़ोसी पशु-संसार के साथ भी स्नेह - पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। गाय, भैंस, बकरी, अश्व, गज, ऊँट, श्वान आदि जिन पशुओं से भी मानव को पोषण या साहाय्य प्राप्त होता है, उनके प्रति भी उसे सदय हो सन्मित्र का-सा ही स्नेह पूर्ण व्यवहार करना चाहिए। इसी या ऐसे ही तत्त्वों पर इन प्रवचनों में बल दिया गया है । पुस्तक के लेखक या प्रवचनों के दाता कविरत्न श्री अमर मुनि महाराज भारत-विख्यात जैन साधु हैं। आपकी लेखनी और वाणी में शक्ति और ओज-तेज है। इन दोनों के आधार में हैकविरत्न जी का तपःपूत जीवन और उदार एवं उदात्त चरित्र - बल, इसीलिए उनकी लेखनी और वाणी का प्रभाव सहृदय श्रोताओं के हृदय पटल पर अङ्कित हुए बिना नहीं रहता । कवि जी की लेखन - शैली स्वाभाविक, सरल और आकर्षक है। शब्दों में प्राण और भावों में अनुभूति है। पुस्तक पढ़ते-पढ़ते ऐसा भान होने लगता है, मानो कोई महान् पुरुष प्रवचनामृत की विमोहक वर्षा कर रहा है, और उसके हृदय में निकला एक-एक वाक्य और एक-एक शब्द पाठक को बलात् अपनी ओर खींचे लिए जाता है । कवि की भाषा में कवित्व की झलक तो होनी ही चाहिए, इस दृष्टि से भी पुस्तक सुन्दर है। आशा है, यह पुस्तक हिन्दी साहित्य भण्डार में समुचित स्थान प्राप्त करेगी और लोगों में जो स्वार्थ, अनैतिकता तथा कालुष्य की दुर्भावना फैल चुकी है, उसे नष्ट-भ्रष्ट या न्यून करने में सबल सहायक सिद्ध होगी । मानव-कल्याण की मृदु-भावना से दिये गये पुण्य प्रवचनों की इस छोटी, किन्तु प्रभाव पूर्ण पुस्तक के लिए हम कविरत्न अमर मुनि जी महाराज का बड़ी श्रद्धा से हार्दिक अभिनन्दन करते हैं । ८ जनवरी १९५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only शङ्कर-सदन, आगरा हरिशङ्कर शर्मा www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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