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________________ आस्तिक आनन्द । १०३ बड़ा विकट प्रश्न है ! मगर यह प्रश्न केवल उन वकील साहब के सामने नहीं. हरेक के सामने है। मनुष्य दुनिया भर को अपने बंधन में बाँध ले, सब जगह अपनी विजय-पताका भले ही फहरा ले, किन्तु अपने ही मन और तन पर उसका अपना कब्जा नहीं है। यह वह अनुभव भी करता है। कभी-कभी वह सोचता भी है, कि मेरे मन मेरा अधिकार नहीं है, बल्कि मेरा मन ही उल्टा मेरे ऊपर कब्जा किए हुए है। मगर यह अनुभव करते, ओर विचारते हुए भी मनुष्य विवश और लाचार है। चित्त मुनि कहते हैं तुम्हारे सामने जो गीत, और नृत्य होते हैं, वे तुम्हें गीत और नृत्य मालूम होते होंगे, किन्तु मुझे तो ऐसा मालूम होता है, यह रोना है—यह विलाप है। तुम्हारी जिन्दगी पर सब रो रहे हैं क्योंकि तुम्हारा पतन हो रहा है। आध्यात्मिक रूप से तुम पतन के गहरे गर्त में समाये जा रहे हो। बड़े-बड़े सम्राटों को अपने चरणों में झुकाने वाले तथा देवताओं द्वारा सेवित चक्रवर्ती से मुनि ने सब कुछ साफ-साफ कहा। चित्त मुनि ने ब्रह्मदत्त से कहा नागो जहा पंकज लावसन्नो, दटुं, थलं नाभिसमेई तीरं। एवं वयं कामगुणेसु गिद्धा, न भिक्खुणो मग्गमणु व्वयामो॥ –उत्तराध्यन, १३ भगवन् ! आपकी बात यथार्थ है। आपने जो कुछ कहा है, उसमें तनिक भी संदेह नहीं है, किन्तु मैं विवश हूँ। हाथी झील में पानी पीने जाता है और कभी-कभी झील के बीच कीचड़ में फँस जाता है। किनारा पास ही होता है और वह चाहता भी है कि मैं किनारे पर पहुँच जाऊँ, किन्तु वह किनारे पर पहुँच नहीं पाता, और उसके प्राण उसी कीचड़ में समाप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार मैं भी कीचड़ में फँस गया हूँ, किनारा दिखाई दे रहा है, मगर किनारे पर पहुँच नहीं पाता। संसार के वासना-पंक में फँसा मनुष्य परमार्थ की ओर कैसे बढ़े। यह स्वतन्त्र पुरुष नहीं, परतन्त्र पुरुष की भाषा है। यह विवश और लाचार आदमी की भाषा है। वह वासनाओं के दल-दल में फंस गया है, और इतना गहरा फँस गया है कि सामने सत्य-मार्ग के जीवन के उद्धार के मार्ग के होते हुए भी वह उस तक पहुँच नहीं पाता है। वास्तव में आत्मा की दुर्बलता ने उसे ऐसा गिरा दिया है, कि उसमें से निकलना उसके लिए बहुत ही कठिन बात हो गई है। इसीलिए मैंने कहा है, कि जीवन वासनाओं में फंस कर इतना बर्वाद हो जाता है, कि वह अनेक रूपों में स्वतन्त्र होकर भी स्वतन्त्र नहीं रहता। ब्रह्मदत्त सम्राटों का भी सम्राट् है ! चक्रवर्ती है, किन्तु आत्मा का सम्राट् वह नहीं है, मन का राजा नहीं है, उसमें यह शक्ति नहीं, कि जब चाहे तब इन्द्रियों का उपयोग करे, और जब न चाहे For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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