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१०४। उपासक आनन्द तब उपयोग न करे। जब चाहे तब मन से काम ले, और जब न चाहे तब न ले। जब सुनने की आवश्यकता हो, तो सुने और आवश्यकता न हो तो आवाज को ठुकरा दे। __ आपने कितना सुना है। फिर भी वासनाओं को जीतने की ओर आपका कदम नहीं उठता। मैं चकित हूँ, कि हमारी बहिनें, जो अबला कहलाती हैं, समाज में भी जिनको कोई खास स्थान नहीं दिया गया है, तथा जो हजारों वर्षों से अंधकार में रह रही हैं, इस ओर आपसे भी आगे हैं। आज ही एक बहिन ने अपने दोनों हाथों की चार-चार उँगलियाँ दिखला कर अठाई की तपस्या अंगीकार की है। समाज ने उसे बोलने की इजाजत नहीं दी है। आपकी मर्यादा ऐसी है, कि आपके सामने वह आवाज नहीं निकाल सकती। इन परिस्थितियों में बहिर्ने रह रही हैं, फिर भी कुछ न कुछ कर रही हैं। आप, अगर आपके सामने उपवास का सवाल आता है, तो कितना आगा-पीछा सोचते हैं। दया का प्रश्न आता है, जिसमें भोजन भी मीठा मिलता है, तो भी आप लड़खड़ाने लगते हैं, और सोचते हैं, कि दया भी चले और दुकान भी चले तो ठीक है।
बड़ी कठिनाई है। शरीर की गुलामी ने मनुष्य को कितना विवश कर दिया है। शरीर की आवश्यकता को मनुष्य महसूस करता है, उसे वस्त्र या अलंकार की आवश्यकता होती है, तो आज्ञा मिलने भर की देर है, उसकी पूर्ति में देर नहीं लगती। देर लगी तो, मन में कुढ़ता रहता है। उसकी पूर्ति के लिए चाहे सो बर्वाद कर देगा। किन्तु अपनी आत्मा की आवाज को वह सुनी अनसुनी कर देता है।
एक भाई कहते हैं-चौदस आ रही है। मैंने कहा—बहुत-सी आ चुकी हैं। इस जीवन में कितनी चौदसें आईं, और चली गईं। कोई हिसाब है, जिसके अन्त:करण में चौदस की भावना होगी, जो वासनाओं को ठुकराने के लिए तैयार होगा, उसके लिए उसी दिन चौदस है। मैं तो कहता हूँ, कि जीवन में जो भी क्षण मिलता है, बड़ा मूल्यवान् है, और उस क्षण को भी व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए। ऐसी भी आत्माएँ हैं, जो चौदस का इन्तजार नहीं करतीं। वे जिस समय जागी, उसी समय उठ खड़ी हुईं। भगवान ने गौतम को कितने गंभीर शब्दों में चेतावनी दी हैसमयं गोयम, मा पमायए।
-उत्तराध्ययन अर्थात्-गौतम! क्षण भर के लिए भी प्रमाद के अधीन न हो, एक भी क्षण व्यर्थ न गँवा।
कई भाई कहते हैं, कि दया और उपवास के लिए प्रेरणा दीजिए। उस समय मैं सोचता हूँ, काम तो इनकी भावना के स्वयं जागने पर ही चलेगा। किसी की प्रेरणा से,
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