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________________ |१०२ | उपासक आनन्द की? ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की कहानी तो आपने सनी ही है। वह चित्त मनि के पास गया। वह चित्त मुनि, महान् साधक थे, और उन्होंने बाहर और भीतर की गाँठों को तोड़ दिया था। वह बाहर के बन्धनों से रहित थे और अन्दर के बंधनों से भी रहित। वह अपने जीवन में एक दिव्य ज्योति जगाने वाले थे। प्रकाश लेकर आए थे। उन चित्त मुनि के पास ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती पहुँचा। उसने सोचा यह मेरे पूर्व जन्म के भाई हैं। आज साधु हैं, और भिक्षा-पात्र लेकर जगह-जगह माँगते फिरते हैं। मेरे भाई होकर और कई जन्मों के सबन्धी होकर भीख माँगते फिरें, यह मेरे लिए शोभा-जनक नहीं है। यह सोच कर उसने उन महामुनि से कहा-आप महलों में चलिए, उन महलों में जिनके कलश धूप में चम-चम करते हैं। इसमें सोचने-विचारने की कोई बात नहीं है। आपको मालूम है, मैं चक्रवर्ती हूँ। चित्तमुनि ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से उस समय जो वाणी कही, वह भगवान् महावीर की कृपा से हमें आज भी प्राप्त है। वह एक सन्त की वाणी थी, परन्तु वह तीर्थंकर की वाणी पर चढ़ी, और फिर गणधरों की वाणी में उतरी और इस प्रकार निरन्तर बहती हुई वह हमारी परम्परा में आई है। सामने चक्रवर्ती खड़ा है, और वह महलों में चलने और भोग-विलास करने का आमन्त्रण दे रहा है। मैं सब प्रबन्ध कर दूंगा। तब सन्त ने क्या कहा, सन्त ने कहा सब्वं विलवियं गीयं सब्वं नर्से विडंपियं। सब्वे आभरणा भारा, सब्वे कामा दुहावहा॥ —उत्तराध्ययन १३ मुनि ने कहा—राजन्! तुम राजसिंहासन पर बैठे हो, प्रजा का न्याय करने बैठे हो, तुमने दूध का दूध, और पानी का पानी करने का अधिकार पाया है, किन्तु अपना भी न्याय करते हो या नहीं। हमारे पास एक वकील आए। वह बैरिस्टर हैं। विकट और उलझे हुए मुकद्मों को सुलझाते हैं, और लोग उनकी प्रशंसा करते हैं। उन्होंने उस समय जो मुकद्मा जीता था, मेरे सामने उसका अच्छे ढंग से वर्णन किया जा रहा था। सुनते-सुनते मैंने उनसे कहा—वकील साहब! आप अपने मुवक्किलों की ही मिसलें देखते हैं, उनको ही जिताते हैं, और उनमें ही कामयाब होते हैं। मगर मैं पूछता हूँ, क्या आप अपने अंदर की मिसल भी कभी देखते हैं। आपने अब तक अनेक मुकद्मे लड़ाए और अनेकों को जिताया भी, पर अपनी मिसल का भी कभी पन्ना पलटा है या नहीं। दूसरों की ही वकालत की है या कभी अपनी भी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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