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________________ IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII अस्तेय-सूत्र चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं। दत्तंसोहणमित्तं पि, उग्गहं से अजाइया॥ तं अप्पणा न गिण्हंति, नो वि गिण्हावए परं। अन्नं वा गिण्हावए पि, नाणुजाणंति संजया॥ सचेतन पदार्थ हो या अचेतन, अल्प-मूल्य पदार्थ हो या बहुमूल्य, और तो क्या, दाँत कुरेदने की सींक भी जिस गृहस्थ के अधिकार में हो उसकी आज्ञा लिये बिना पूर्णसंयमी साधक न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण करने के लिये प्रेरित करते हैं, और न ग्रहण करने वालों का अनुमोदन ही करते हैं। उड्ढं अहे य तिरियं दिसासु, तसा य जे थावर जे य पाणा। हत्थेहिं पाएहिं य संजमित्ता, अदिन्नमन्नेसु य नो गहेज्जा॥ ऊँची, नीची और तिरछी दिशा में जहाँ कहीं भी जो त्रस और स्थावर प्राणी हों उन्हें अपने हाथों से, पैरों से,-किसी भी अंग से पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिए। और दूसरों की बिना दी हुई वस्तु भी चोरी से ग्रहण नहीं करनी चहिए। तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसति आयसुहं पडुच्च। जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खइ सेयवियस्स किंचि॥ जो मनुष्य अपने सुख के लिए त्रस तथा स्थावर प्राणियों की क्रूरतापूर्वक हिंसा करता है उन्हें अनेक तरह से कष्ट पहुँचाता है, जो दूसरों की चोरी करता है, जो आदरणीय व्रतों का कुछ भी पालन नहीं करता, (वह भयंकर क्लेश उठाता है)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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