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________________ ४० | उपासक आनन्द यदि अनेक नगण्य वृक्षों को एक-एक बूँद से सींचने का मोह छोड़कर इने गिने चंद वृक्षों को ही लगाने का आदर्श रखा जाए, और उनको यथा आवश्यक जलधारा से सींचा जाए तो वे वृक्ष पनपेंगे, फूलेंगे और फलेंगे । आज स्थानक-वासी सम्प्रदाय के संगठन की बात चल रही है, और एक आचार्य बनाने की बात भी हो रही है। मैं चाहता हूँ, कि ऐसा ही हो, किन्तु एक बात हमें स्मरण रखनी है। एक आचार्य बनाकर यदि समग्र संघ, उनके चरणों में अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा अर्पण करेगा, तभी संगठन सफल होगा। इसके अतिरिक्त एक आचार्य बना लेने पर भी यदि साधु अपने-अपने शिष्य अलग-अलग बनाते रहे, तो फिर अलग-अलग गुट बन जाएँगे । अतएव जो भी नये व्यक्ति दीक्षित हों, वे एकमात्र आचार्य के शिष्य हों । आज हमारी श्रद्धा आचार्य के प्रति उतनी नहीं है, जितनी अपने अलग-अलग गिरोह बनाने में है । आज का साधु अपनी समकित का प्रचार करने के लिए दौड़धूप करता है । कहीं भी जाता है, तो पहले समकित की बात कहता है ? बच्चों से, युवकों से और बूढ़ों से वह पूछेगा - तुमने किसे गुरु बनाया है ? अगर गुरु- आम्नाय नहीं ली है, तो ले लो। और इस तरह बिना समझे-बूझे अंट-संट पाटियाँ बोलकर मानो गोबर का पिण्ड उसके पल्ले बाँध देता है ! समकित लेने वाला सोचता हैबस, मेरा काम फतह हो गया। अब चौथे गुणस्थान में तो कोई कसर ही नहीं रही । महाराज मेरे गुरु बन गए, अब करना ही क्या है ? इस प्रकार उस भोले आदमी का विकास वहीं रुक जाता है। वह एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाता। उसमें झूठा आत्म-सन्तोष पैदा हो जाता है। मतलब यह है, कि जहाँ अपने व्यक्तित्व का प्रचार करने की वृत्ति होती है, वहाँ सारी श्रद्धा को केवल अपनी ओर ही बटोरा जाता है । आज फूट के कारण हमारे समाज की दशा बद से बदतर होती जा रही है। श्रद्धा इधर-उधर बिखर रही है। साधु अपनी खिचड़ी अलग पकाने में लगे हैं और श्रावक, साधुओं के मुँह से बढ़ाई और प्रतिष्ठा पाने में लगे हैं। दोनों सत्य की राह से दूर होते जा रहे हैं। मनुष्य गुणों से ही बड़ा बनता है। गुणों से ही जीवन का विकास होता है, और गुणों से ही आत्मा का कल्याण होता है। एकता और संगठन, संघ का प्राण है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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