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________________ - |४| उपासक आनन्द । कर सकता है, यह कला आनन्द के इस वर्णन से सीखी जा सकती है। मगर इस कला को सीखने से पहले, उसकी पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है। यही कारण है, कि शास्त्रकार ने स्वयं ही उस पृष्ठभूमि का उल्लेख कर दिया है। आनन्द के भोजनालय में प्रतिदिन बहुत-सा जो भोजन बचा रह जाता था, उसका कारण उसकी आन्तरिक उदारता तो थी ही, किन्तु उस उदारता का भी एक विशेष कारण था। वह यह कि आनन्द को भोजन सामग्री बाजार से खरीद कर नहीं लानी पडती थी। प्रधान भोजन सामग्री के विषय में वह पूरी तरह स्वावलम्बी था। भोजन की पहली सामग्री अन्न है और अन्न उत्पन्न करने के लिए वह विशाल पैमाने पर खेती कराता था। उसके यहां पाँच-सौ हल की खेती होती थी। भोजन की दूसरी सामग्री घी-दूध समझी जा सकती है और उसके लिए भी वह परावलम्बी नहीं था। उसके यहां चालीस हजार गायें पलती थीं। गायों की संख्या को बतलाते हुए कहा गया है, कि चत्तारि वया, दस गो-साहस्सिएणं वएणं होत्था। आनन्द के यहाँ दस हजार गायों के एक ब्रज के हिसाब से चार ब्रज थे! कृषि महारम्भ नहीं : उसके यहाँ की भैंसों की संख्या को शास्त्रकार ने नहीं बतलाया है। जिसके घर पाँच-सौ हल चलते हों और चालीस हजार गायें तथा बहुत-सी भैंसें हों, उसके यहाँ अन्न, घी, दूध और छाछ की क्या कमी हो सकती है? ऐसी स्थिति में उसकी भोजन-शाला में अपनी आवश्यकता से भी अधिक भोजन बनाया जाना और उससे याचकों एवं अनाथों का पालन-पोषण होना स्वाभाविक ही है। बाजार से मोल अन्न, घी, दूध, आदि खरीदने वालों में यह उदारता आना बहुत कठिन है। आनन्द के यहाँ गायों और भैंसों के अतिरिक्त बकरों, बकरियों और भेड़ों की भी एक बड़ी संख्या थी। प्रश्न हो सकता है, कि जहाँ गायों और भैंसों की इतनी बड़ी संख्या हो उसे बकरियाँ और भेड़ रखने की क्या आवश्यकता थी? इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर तो आनन्द से ही माँगा जा सकता है, मगर क्योंकि आज आनन्द हमारे बीच में मौजूद नहीं है, इसलिए इस सम्बन्ध में केवल दो ही बात कही जा सकती हैं___पहली बात यह कि पाँच-सौ हलों की विशाल खेती करने वाले वैश्य को खाद की बड़ी आवश्यकता रहती होगी और खाद उत्पन्न करने के लिए उसने बकरियों और भेड़ों का पालन आवश्यक समझा होगा। कृषि-विशारदों के कथनानुसार खाद के अभाव में खेत यथोचित फसल प्रदान नहीं करते। खेत रखना, किन्तु उनका पर्याप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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