SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 185
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ QUIMINIMIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIITITZZ ध्यान-योग साधना IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIL 38 योग-साधना ध्यान, चेतना की वह अवस्था है, जहाँ समग्र अनुभूतियाँ एक ही अनुभूति में विलीन हो जाती हैं। विचारों में सामंजस्य आ जाता है। परिधि टूट जाती है और भेद-रेखा मिट जाती है। जीवन और स्वतन्त्रता की इस अखण्ड अनुभूति में ज्ञाता और ज्ञेय का भेद मिट जाता है। इस अर्थ में मन की एकाग्रता ही ध्यान है। ध्यान और कुछ नहीं है, मन की किरणें जो इधर-उधर बिखर जाती हैं, उन्हें किसी एक विषय पर केन्द्रित कर देना ही ध्यान है। ध्यान आत्मा की एक शक्ति है, इस शक्ति की उपलब्धि मन की एकाग्रता से होती है। अतएव भारतीय दर्शनों में ध्यान की साधना को प्रत्येक शाखा ने महत्त्व दिया है। ध्यान की अद्भुत शक्ति मानव शरीर में कुछ केन्द्र इस प्रकार के हैं, जो चेतना के विभिन्न स्तरों को प्रकट करते हैं। जब मन नीचे के केन्द्रों पर अधिष्ठित होता है, तब काम, क्रोध एवं भय आदि विकार उसे घेर लेते हैं। उस स्थिति में शरीर अस्वस्थ हो जाता है, और मन अशांत। जब वह उन केन्द्रों को छोड़ कर ऊपर की भूमिकाओं पर जा पहुँचता है, तब जीवन के सूक्ष्म तथा शक्तिशाली तत्त्वों के साथ उसका सम्बन्ध जुड़ जाता है। विषयों से विरक्ति दूसरों से प्रेम भाव तथा निर्भयता आदि सात्विक गुणों की अभिव्यक्ति होने लगती है। उसके विचार तथा व्यवहार में एकरूपता तथा एकसूत्रता आ जाती है। मन के अन्तर्मुखी होने पर ही मनुष्य को शक्ति एवं शांति प्राप्त होती है। जब तक मनुष्य के मन में अपने भौतिक अस्तित्व की चिंता रहती है, तब तक उसे शांति एवं समाधि उपलब्ध नहीं हो सकती। विषय एवं विकारों से क्षुब्ध मन किसी भी विषय को ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता। गंभीर विषय तो क्या, सामान्य से भी सामान्य विषय को वह पकड़ नहीं पाता। यही कारण है कि साधारण व्यक्ति विषम परिस्थिति में पड़कर अपने आपको खो बैठता है तथा उसका मानसिक सन्तुलन नष्ट हो जाता है। उस स्थिति में वह अपने को पागल से अधिक श्रेष्ठ मानने की स्थिति में नहीं रहता। मनुष्य के इस पागलपन को दर करने की विधि का नाम ही ध्यान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy