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________________ ध्यान-योग साधना । १७३ भारत में प्राचीन समय से ही ध्यान का प्रसार और प्रचार रहा है। भारत की प्रत्येक आध्यात्मिक परम्परा ने ध्यान को आत्म-साधना का मुख्य तत्व माना है। किन्तु उसकी परम्परा सदा कोलाहल से दूर एवं मौन रही है। जिस प्रकार एक प्रदीप दूसरे प्रदीप से प्रकाश प्राप्त करता है, उसी प्रकार इस आलोक को भी शिष्य गुरु से रहस्य के रूप में प्राप्त करता रहा है। वस्तुतः ध्यान आत्मा को आत्मा के द्वारा प्रज्वलित करने की प्रक्रिया है। ध्यान स्वयं को स्वयं में खोजने की एक दिव्य कला है। ध्यान भारत की एक प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण देन कही जा सकती है। यह अध्यात्म-साधना का मूल है। योग, तप और ध्यान भारतीय अध्यात्म-साधना के मुख्य रूप में तीन अंग हैं—योग, तप और ध्यान। वेदगत परम्परा का मूल आधार योग रहा है। उपनिषद्-कालीन ऋषियों ने निर्जन वनों में तथा नगर के निकट उपवनों में रहकर हजारों वर्षों तक जो अध्यात्म-साधना की थी, उसका सारतत्व योग है। इस प्रकार का एक भी उपनिषद् नहीं है, जिसमें स्थान-स्थान पर विभिन्न प्रकारों से योग-साधना के सम्बन्ध में कुछ न कहा गया हो। उपनिषदों में सर्वत्र जो योग-सूत्र बिखरे पड़े थे, उन सबको एकत्रित करना, बिखरी हुई सामग्री का समन्वय करना, यह कार्य महर्षि पतंजलि ने अपने योग-सूत्र में बड़ी ही सुन्दरता के साथ सम्पादित किया है। आगम-गत जैन-परम्परा के तीर्थंकर दीर्घकाल से अपनी अध्यात्म-साधना का मूल आधार तप को मानते रहे हैं। भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक चतुर्विंशति तीर्थंकरों ने तप की साधना के द्वारा कैवल्य-लब्धि की है। एक भी तीर्थंकर इस प्रकार का नहीं है, जिसने अपने साधना-काल में छोटा या बड़ा तप न किया हो। चरम तीर्थंकर दीर्घतपस्वी महावीर ने तप की चरम सीमाओं का स्पर्श किया था। मानव जाति के इतिहास में इतना बड़ा अन्य कोई दीर्घ तपस्वी दृष्टिगोचर नहीं होता। द्वादश वर्षों तक निरन्तर अपने आपको तप की ज्वालाओं में डाले रहना, कोई सामान्य बात नहीं है। भगवान् महावीर ने अपनी तप-साधना में जो प्रयोग किये थे, वे द्वादश हैं। द्वादश प्रकार का तप जैन परम्परा में प्रसिद्ध रहा है। अतः जैन साधना का मूल आधार ही तप रहा है। पिटक-गत परम्परा का मूल, ध्यान-साधना में रहा है। भगवान बुद्ध ने अपनी साधना का केन्द्र ध्यान को स्वीकार किया है। ध्यान-साधना ही बौद्ध-परम्परा की साधना का केन्द्र-बिन्दु प्राचीन काल से आज तक रहता चला आ रहा है। विषयविरागी बुद्ध ने विविध प्रकार के ध्यानों का प्रयोग स्वयं अपने जीवन में किया था, जिसका अनुकरण उनके परम्परागत शिष्यों ने किया। ध्यान की जो व्याख्या, ध्यान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org WWW
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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