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________________ | १४४ । उपासक आनन्द है ? S यह सुन कर केशी स्वामी पूछते हैं—वह समुद्र कौन गौतम स्वामी कहते हैं - सा है और नौका कौन-सी सरीरमाहु नावित्ति, जीवो 'बुच्च नाविओ। संसारी अण्णवो वत्तो, जं तरंति महेसिणो ॥ -उत्तराध्ययन अर्थात् — संसार समुद्र है, शरीर नौका है, और उसमें रहा हुआ, आत्मा नाविक (मल्लाह ) है । आत्मा रूपी मल्लाह की जो नौका अव्रत रूपी छेदों से भरी पड़ी है, जिसमें आस्रवरूपी जल भर-भर कर इकट्ठा हो रहा है, वह डूबेगी नहीं, तो क्या पार लगेगी। वह तो डूबने को ही है । गौतम स्वामी कहते हैं—मैंने साधना के द्वारा, व्रत प्रत्याख्यान के द्वारा और संयम के द्वारा अपनी नौका के छेदों को बन्द कर दिया है। मैंने संवर का आराधन किया, तो उसमें छेद नहीं रहे और छेद रहे, तो वह पार हो रही है । छेद रहित नाव पार लगा देती है । मूलपाठ में शरीर को नौका कहा है, मैं जीवन को नौका कह रहा हूँ। आप सोचेंगे, कि यहाँ शब्दों का ही हेर-फेर है अथवा भावों का भी इस पर जरा विचार कर लें । साहब, यह शरीर नौका है। इसमें काम, क्रोध, मद, अहंकार, मोह, लोभ, हिंसा, असत्य आदि का आस्रव रूपी जो जल आ रहा है, तो क्या शरीर के द्वारा ही आ रहा है। क्या मन के द्वारा आस्रव नहीं होता है । मन से भी आस्रव होता है । शास्त्रकार कहते हैं, कि इस मन के द्वारा इतना पानी आता है, और आस्रव का इतना बहाव होता है, कि जिसका कुछ ठिकाना नहीं । औरों की बात जाने दीजिए। तन्दुल मत्स्य का शरीर किस गिनती में है । एक चावल जितनी काया होती है, उसकी। मगर मन के ही द्वारा वह इतना आस्रव इकट्ठा कर लेता है, कि सातवें नरक तक चला जाता है। एक अन्तर्मुहूर्त्त की उसकी जिन्दगी, और चावल के बराबर, शरीर, फिर भी मन के द्वारा वह गहरे नरक का निर्माण कर लेता है। आर्त एवं रौद्र ध्यान से पतन होता है। यह एक ऐसा उदाहरण है, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में महत्त्वपूर्ण ढङ्ग से कहा जाता है। इससे भलीभाँति समझ में आ जाता है, कि मन के द्वारा कितना तीव्र आस्रव हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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