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________________ भारतीय जीवन और योग । १६९/ योग का लक्ष्य चमत्कारिक सिद्धियों की उपलब्धि किसी भी अवस्था में नहीं है, इसे प्रत्येक साधक को प्रारम्भ में ही हृदयंगम कर लेना चाहिए। जीव अनन्त शक्ति का स्वामी है, उसका आत्म-स्वरूप महान है। अत: उसका लक्ष्य तो अपनी शक्ति का ज्ञान तथा आत्म-स्वरूप का दर्शन ही हो सकता है। नगण्य सिद्धियाँ तो साधक के पीछे-पीछे स्वयं डोला करती हैं। कृष्ण, महावीर तथा बुद्ध की साधना ने उन्हें भगवान् के आसन पर आसीन कर दिया, सिद्धियों की ओर वैसे महान् साधकों की दृष्टि ही कैसे उठ सकती थी? फिर भी उनके जीवन में हमें चमत्कारों का भण्डार दिखाई पड़ता है। मनः पर्याय ज्ञान की सिद्धि भगवान् महावीर को जीवन के प्रारम्भ में ही मिल जाती है, किन्तु वे तो अपने लक्ष्य की ओर आगे ही बढ़ते जाते हैं तुच्छ तेजोलेश्या की सिद्धि पर गर्व का भाव गोशालक जैसा पथ-भ्रष्ट साधक ही कर सकता है। भगवान् महावीर पर तेजोलेश्या का प्रयोग कर उसे क्या फल भुगतना पड़ा—यह किसी से छिपा नहीं है। कभी-कभी सचेत साधक भी सिद्धियों के जाल में फंसकर सर्वथा पतनगर्त में जा गिरता है। केवल एक शलाका खींचकर साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्रा की वृष्टि कराने वाले नंदीषेण का योग कितना उत्कृष्ट होना चाहिए, इसका अनुमान कोई भी लगा सकता है, किन्तु पौद्गलिक सिद्धि का लाभ उन्हें योग-भ्रष्ट करने में आगे आ खड़ा हुआ। साधक के लिए सिद्धियों का प्रलोभन बड़ा ही घातक सिद्ध होता है। सिद्धियों के प्रयोग से साधक को सदा ही दूर रहना चाहिए। चक्रवर्ती सनत्कुमार अपने साधक-जीवन में कुष्ठ व्याधि की भयानक पीड़ा को सहन करते रहे, किन्तु उन्होंने अपनी सिद्धि का प्रयोग अपने लिए भी नहीं किया। उनके पास उपलब्धि थी, कि वे अपने ही थूक से अपनी काया को कंचन-सी बना सकते थे। __ पौद्गलिक जगत में आसक्त तथा चमत्कार से अपनी धाक जमाने की कामना रखने वाले साधक कभी योगी की गरिमा नहीं अपना सकते। योग-शास्त्र के प्रथम प्रस्ताव की अष्टम गाथा की टीका में बताया गया है कि योग की प्रक्रिया से अनेकानेक सिद्धियाँ सहज में ही प्राप्त हो सकती हैं, किन्तु केवल उन्हें प्राप्त करने के लिए योग की साधना कभी नहीं करनी चाहिए। योग का उद्देश्य सदा ही उत्कर्षमूलक होना चाहिए, शुद्ध आत्मदशा की उपलब्धि के लिए ही साधक को योग का आश्रय लेना चाहिए। चमत्कारिक सिद्धियों का वर्णन योगशास्त्र में हुआ है, किन्तु इन सभी सिद्धियों को पुरुष साक्षात्कार कराने वाले, आत्मरूप दर्शन का अवसर लाने वाले संप्रज्ञात योग का प्रतिबन्धक बताया गया है। साधक का मन जब तक विषयों से निवृत्त नहीं हो जाता, तब तक उसमें एकाग्रता का अभाव बना रहेगा और वह साध्य के साथ एकात्म नहीं होगा। सिद्धियाँ सदा ही साधक को विषय-भोग की ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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