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________________ वन्दना ।८१ वैदिकधर्म की हिंसा-मूलक यज्ञीय तपस्या को ध्यान में रखकर इन्द्र ने प्रश्न किया है, और नमि राजर्षि ने उसी दृष्टिकोण से उत्तर दिया है। इस प्रकार विचार करने पर कोई असंगति नहीं रह जाती। जैन पोषध और वैदिक पोषध में बहुत अन्तर है। यहाँ मेरा आशय टीकाकारों की भलें बतलाना नहीं है। आशय यह है, कि व्यापक अध्ययन के अभाव में कभी-कभी बड़ी गड़-बड़ी हो जाती है। जैसे पोषध शब्द जैनेतर सम्प्रदायों में भी प्रयुक्त होता है, उसी प्रकार तीन बार प्रदक्षिणा देकर वन्दना करने की पद्धति भी सभी सम्प्रदायों में है। जैन भी इसी ढङ्ग से वन्दना करते थे, और दूसरे भी इसी ढङ्ग से वन्दना करते थे। भारतवर्ष में गुरु का आदर-सम्मान करने की उस समय यही परम्परा थी। परन्तु जान पड़ता है, दूसरों में यह परम्परा बदल गई, और हमारे यहाँ अब भी प्रचलित है। __ मैं समझता हूँ, प्रश्नकर्ता का इस विवेचन से समाधान हो जाएगा। अभी-अभी मैं आपसे कह रहा था आनद भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा करके नमस्कार करता है। __ आजकल तीन बार हाथ घुमाकर प्रदक्षिणा करली जाती है। किन्तु प्राचीन काल में प्रदक्षिणा करने की दूसरी परिपाटी थी। उस समय जिसकी प्रदक्षिणा करनी होती, उसके शरीर के चारों और घूम-घूम कर परिक्रमा की जाती थी। गुरु जहाँ विराजमान होते, वहाँ सब तरफ साढ़े तीन हाथ भूमि खाली छोड़ी जाती थी, और वहाँ कोई बैठ नहीं सकता था। जब कोई भक्त नमस्कार करने को आता, तब पहले उस साढ़े तीन हाथ की भूमि में प्रवेश करने की आज्ञा माँगता था। आज्ञा प्राप्त हो जाने पर वह उस भमि में प्रवेश करके गुरु के चारों ओर फिरकर परिक्रमा करता था। उस समय प्रदक्षिणा करने की यह परिपाटी थी। हमारे यहाँ 'इच्छामि खमासमणो' के पाठ में बोलते हैं, कि_'मुझे अवग्रह में प्रवेश करने की आज्ञा दीजिए।' यह अवग्रह वही खाली भूमि है, जो गुरु के चारों ओर परिक्रमा करने वालों के लिए खाली रखी जाती थी। परिक्रमा करना भी प्राचीन परम्परा है। ___ इस भूमि में प्रवेश करने के लिए गुरु की आज्ञा मांगी जाती थी। गुरु जब आज्ञा दे-देते, तब भक्त उसमें प्रवेश करता। गुरु के चरणों को स्पर्श करता, और फिर, अपने नहीं; किन्तु गुरु के दाहिने हाथ की ओर से प्रारम्भ करके चारों ओर चक्कर लगाता, और सामने आने पर वन्दना करता था। फिर दूसरे चक्कर में सामने आने पर वन्दना करना और इसी प्रकार तीसरे चक्कर में भी। इस तरह तीन प्रदक्षिणा करने के बाद नमस्कार करता था। मन्दिरों में आज भी यही परिपाटी प्रचलित है। वहाँ मूर्ति को भगवान् के रूप में स्थापित कर दिया जाता है, और उसी प्रकार परिक्रमा की जाती है, जैसे भगवान् के सामने की जाती थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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