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________________ पुण्य-पाप की गुत्थियाँ । ५९ बात यह है कि यहाँ पुण्य और पाप के उदय का प्रश्न नहीं है, यहाँ तो कार्यों को तोड़ने का मुख्य प्रश्न है। अज्ञानता से और विवेकहीनता से चलेंगे तो उसका कोई मूल्य नहीं है, किन्तु जो साधक विचार में है, विवेक में है, और सोच-विचार कर पैदल चलने की भावना रखता है और समझता है कि सवारी पर चलने से हिंसा होगी, अतएव स्वयं श्रम करूँ और दूसरों को क्यों कष्ट दूँ, कीड़ी वगैरह की हिंसा न हो जाए; और इस प्रकार सोच कर जो अपने संयम को अधिक उच्च रूप में रखने का प्रयत्न करता है; उसमें पाप प्रकृति का उदय नहीं है । किसी साधक ने सवारी का त्याग कर दिया, भोजन करने का त्याग कर दिया, अमुक-अमुक विगय का त्याग कर दिया, तो यह सब क्या है ? ध्यान से सोचेंगे तो मालूम होगा कि यह सब पापकर्म के उदय से नहीं हुआ, यह तो क्षयोपशम एवं संवर से हुआ है। जहाँ त्याग और तप करने की भावना है, दया की भावना है, दूसरों पर अपना बोझ न डाल कर स्वयं काम करने की भावना है, वहाँ क्षयोपशम अथ च संवर हो रहा है। आप विवेक पूर्वक पैदल चल रहे हैं तो कर्मों का क्षयोपशम हो रहा है। आप निराहार रह रहे हैं और उसमें विवेक का पुट है तो आप कर्मों की निर्जरा कर रहे हैं। प्रत्याख्यान क्या चीज है ? वह संवर है, कर्मों को रोकने का मार्ग है । कर्मों का जो अविरल प्रवाह आत्मा की ओर बहता है, उसे रोक देने का तरीका है । यह संवर पाप के उदय से होता है अथवा पुण्य के उदय से होता है ? संवर ने तो पाप और पुण्य-दोनों से लड़ाई लड़ी है। तो पाप और पुण्य की भाषा में संवर और निर्जरा को सोचना अज्ञानता से सोचना है। आप दान देते हैं सो किस कर्म के उदय से ? आपके पास दस-बीस हजार हैं और उनमें से एक हजार दान दे दिया तो उतनी लक्ष्मी कम हो गई। वह पाप के उदय से या पुण्य के उदय से कम हो गई ? लक्ष्मी इकट्ठी करना पुण्य का उदय और कम करना पाप का उदय मान लिया तो दान देने से जो लक्ष्मी कम हो गई, उसे भी पाप का उदय ही मानना पड़ेगा । हरिश्चन्द्र जैसे ने तो अपना सर्वस्व लुटा दिया था और एक कौड़ी भी अपने पास नहीं रखी थी। आपने अपने भाई की सहायता कर दी या किसी साधु को बहरा दिया अथवा दिल में दया उपजी और किसी गरीब को कुछ दे दिया, तो आपके पास का परिग्रह कम हो गया— लक्ष्मी कम हो गई। जितना दिया उतना कम हो गया। क्या आप इसे पाप के उदय का फल समझेंगे ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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