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________________ | समवसरण में प्रवेश | ७३ भाव-पुष्प हैं। मैं प्रभु के चरणों में इस प्रकार के पुष्पों की भेंट चढ़ाता हूँ। यह प्रभु की भक्ति, भाव-भक्ति है। इस प्रकार प्रभु के चरणों में पहुँचोगे, तो तुम्हें सच्चे भक्त होने का आनन्द मिलेगा, और महक मिलेगी, जिससे तुम ही नहीं, आनंदित होओगे, दूसरों को भी आनन्द होगा। ___ तुम हाथों में क्या लेकर आए हो? मेवा, मिष्ठान्न या पुष्प ? भगवान् यह नहीं देखते। वे तो तुम्हारे मन को देखते हैं। यह सब क्यों बटोर कर लाए हो? मन में अहिंसा और दया की भावना है, अनासक्ति की भावना है, तो यही सबसे बड़ी भेंट है। यही भेंट चढ़ाकर आप अपने जीवन को सुन्दर और सफल बना सकते हैं। हिंसा करना मुक्ति का मार्ग नहीं है। भगवद्भक्ति का मार्ग नहीं है। इसी प्रकार जब किसी सन्त पुरुष की उपासना के लिए जाओ, तो जो जैसे हों, उनकी जो भी मर्यादाएँ हों, उनका उसी रूप में पालन करना चाहिए। महाभारत में मैंने पढ़ा है। जब भीष्म युद्ध में लड़ते-लड़ते घायल हो जाते हैं, तो बाणों की शय्या पर लेट जाते हैं, पलंग पर नहीं, मखमल या रुई के गद्दे पर नहीं। जिस ओर झुकते हैं, उसी ओर से वाण चुभते हैं। रक्त की बूंदें बह रही हैं। चारों ओर से कौरव और पाण्डव उन्हें घेर कर खड़े हैं। दुर्योधन, कर्ण और शकुनि आदि-आदि महारथी खड़े हैं। वज्र के बने उस बुड्ढे ने कभी हार नहीं खाई। वह शरीर से निरन्तर जूझाता रहा है, और इसी कारण उसका नाम 'भीष्म' हो गया है। उसने भरी जवानी में ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर अपने पिता के लिए जबर्दस्त बलिदान दिया। उसी भीष्म का जबर्दस्त चमकने वाला सूर्य आज निस्तेज हो रहा है। आज उनके जीवन का दीपक बुझ रहा है। ____ भीष्म ने सोचा-ये लोग अपने अहंकार के सामने किसी को कुछ नहीं समझ रहे हैं, और खून की होली खेल कर ही फैसला करना चाहते हैं। एक-मात्र तलवार ही इनकी सहायक है, इन्होंने यही अपना सिद्धान्त बना लिया है। इस दृष्टिकोण से उन्होंने परीक्षा लेकर शिक्षा दर्शानी चाही। अपने लटकते हुए सिर को ऊँचा उठाया और कहा-देखते क्या हो, एक तकिया लगाओ। ___भीष्म की ललकार-भरी आवाज निकली ही थी कि दुर्योधन, कर्ण आदि बढ़िया-बढ़िया मखमली और रुईदार तकिया ले आए। किन्तु भीष्म ने कहा यह क्या लाए हो यह तकिया तुम्हारे लिए होंगे, भीष्म के लिए नहीं हैं। यह तकिया लाकर तुमने भीष्म का अपमान और उपहास किया है ! फिर अर्जुन की ओर इशारा किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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