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________________ १० ब्रह्मचर्य-सूत्र १ विरई अबंभचेरस्स, कामभोग रसन्नुणा । उग्गं महव्वयं बंभ, धारेयव्वं सुदुक्करं ॥ काम भोगों का रस जान लेने वाले के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्त होना और उग्र ब्रह्मचर्य महाव्रत का धारण करना, बड़ा ही कठिन कार्य है। २ अबंभचरियं घोरं, पमायं दुरहिट्ठियं । नायरन्ति मुणी लोए, भेयाययणवजिणो ॥ जो मुनि संयम घातक दोषों से दूर रहते हैं, वे लोक में रहते हुए भी दुःसेव्य, प्रमाद-स्वरूप और भयंकर अब्रह्मचर्य का कभी सेवन नहीं करते । ३ मूलमेयमहम्मस्य, महादोससमुस्स । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वज्जयन्ति णं ॥ यह अब्रह्मचर्य अधर्म का मूल है, महादोषों का स्थान है, इसलिए निर्ग्रन्थ मुनि मैथुन संसर्ग का सर्वथा परित्याग करते हैं। ४ विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणीयं रसभोयणं । नरस्सअत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ आत्म शोधक मनुष्य के लिये शरीर का श्रृंगार, स्त्रियों का संसर्ग और पौष्टिक स्वादिष्ट भोजन—सब तालपुट विष के समान महान भयंकर हैं। ५ न रुवलावण्णविलासहासं, Jain Education International न जंपियं इंगिय-पेहियं वा । इत्थीण चित्तंसि निवेस ता दडुं ववस्से समणे तवस्सी ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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