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________________ १९२। उपासक आनन्द । श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मधुर वचन, काम-चेष्टा और कटाक्ष आदि का मन में तनिक भी विचार न लाये, और न इन्हें देखने का कभी प्रयत्न करे। अदंसणं चेव अपत्थणं च, अचिंतणं चेव उकित्तणं च। इत्थीजणस्साऽऽरियज्झाणजुग्गं, हियं सया बंभवए रयाणं॥ स्त्रियों को रागपूर्वक देखना, उनकी अभिलाषा करना, उनका चिन्तन करना, उनका कीर्तन करना आदि कार्य ब्रह्मचारी पुरुष को कदापि नहीं करने चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत में सदा रत रहने की इच्छा रखने वाले पुरुषों के लिये यह नियम अत्यन्त हितकर है, और उत्तम ध्यान प्राप्त करने में सहायक है। ७ मणपल्हायजणणी, कामराग विवड्डणी। बंभचेर रओ भिक्खू, थीकहं तु विवज्जए॥ ब्रह्मचर्य में अनुरक्त भिक्षु को मन में वैषयिक आनन्द पैदा करने वाली तथा काम-भोग की आसक्ति बढ़ाने वाली स्त्री-कथा को छोड़ देना चाहिए। समं च संथवं थीहिं, संकहं च अभिक्खणं। बंभचेर रओभिक्खू, निच्चसो परिवज्जए॥ ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को स्त्रियों के साथ बातचीत करना और उनसे बार-बार परिचय प्राप्त करना सदा के लिये छोड देना चाहिए। अंगपच्चंगसंठाणं, चारुल्लविय-पेहियं। बंभचेर रओ थीणं, चक्खुगिझं विवज्जए॥ ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को न तो स्त्रियों के अंग-प्रत्यंगों की सुन्दर आकृति की ओर ध्यान देना चाहिए, और न आँखों में विकार पैदा करने वाले हाव भावों और स्नेहभरे मीठे वचनों की ही ओर। १० कूइयं रूइयं गीयं, हसियं थणियकन्दियं। बंभचेर रओ थीणं, सोयगिझं विवज्जए॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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