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________________ | पुण्य-पाप की गुत्थियों । ५७ किन्तु पुण्य और पाप की यह व्याख्याएँ नहीं हैं। अगर यह व्याख्याएँ सही हैं और एक श्रीमान रथ पर चल रहा है और एक सन्त नंगे पैर पैदल चल रहा है, तो आप इनमें से किसे पुण्यात्मा और किसे पापी समझते हैं ? ___ कदाचित् आप कह दें कि सन्त जो धर्मक्रिया कर रहे हैं, उसका फल उन्हें भविष्य में मिलेगा। फिलहाल तो वे अपने पुराने कर्मों का फल भोग रहे हैं। अपने पापों का क्षय कर रहे हैं। तो इसका अर्थ यह हुआ कि जितने भी पैदल चलने वाले संत हैं, सब के सब पाप कर्म के उदय से पैदल चल रहे हैं। जरा ठहरिए, ऐसा मानकर भी आप अपना पल्ला नहीं छुड़ा सकते। तीर्थंकर दीक्षा लेने से पहले सवारी का उपयोग करते हैं और दीक्षा लेने के पश्चात् पैदल विहार करने लगते हैं। तो क्या आपके ख्याल से दीक्षा लेते ही उनका पुण्य क्षीण हो जाता है और पाप का उदय हो जाता है ? कई तीर्थंकर, चक्रवर्ती की ऋद्धि त्याग कर दीक्षित होते हैं और जो चक्रवर्ती नहीं होते, वे भी महान् राजकुलों में उत्पन्न होकर राजकीय वैभव को ठुकरा कर दीक्षा लेते हैं। आगम बतलाता है कि पुण्य प्रकृतियों में तीर्थंकर प्रकृति सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति है। फिर कैसे कल्पना की जाय कि तीर्थंकर पाप के उदय से पैदल विहार करते हैं ? और कैसे माना जाय कि जो पैदल न चल कर पालकी पर चढ़कर चलता है, वह पुण्यात्मा होता है ? एक सच्चाई का परित्याग कर देने से पचासों मिथ्या कल्पनाएँ करनी पड़ती हैं और सत्य सिद्धान्त की श्रृंखला भंग हो जाती है। वास्तव में पैदल चलना या सवारी पर चलना और नंगे पैर चलना अथवा जूते पहन कर चलना पाप और पुण्य का उदय नहीं है। कार्य के साथ यदि पुण्य-पाप को जोड़ना चाहते हैं तो जो काम विचार और विवेक के साथ किया जा रहा है, उसे पुण्य के उदय में रखिए और जो विवेक शून्य होकर, किसी प्रकार का विचार न करके, अपने शरीर को निठल्ला बना कर सवारी पर चल रहा है और इस कारण जो यतना नहीं संभाल सकता, उसे पाप में शामिल कीजिए। ___ आखिर विचार करना होगा, दृष्टि में परिवर्तन करना होगा और तभी यह प्रश्न हल होगा। आपने भोजन किया और किसी ने उपवास किया, चौला किया, पंचौला किया या अठाई की और अपने शरीर को तपाया मालूम होता है, तकलीफ है, पर भावना का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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