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________________ गो-पालक आनन्द यह उपासकदशांगसूत्र है और आनन्द का जीवन आपके सामने है । भगवान् महावीर के समय में आनन्द आपके समान ही एक गृहस्थ था । एक गृहस्थ के जो कुछ भी होता है, उसके भी पुत्र, पत्नी, कुटुम्ब - परिवार आदि सभी कुछ था। भगवान् की शरण में आ जाने पर भी वह जीवन पर्यन्त श्रावक ही बना रहा, साधु का जीवन उसने अंगीकार न किया, परन्तु श्रावक के रूप में रहकर जो उसने साधना की, उस साधना ने उसके लिए महामंगल का द्वार खोल दिया। उसकी साधना का पथ क्या था, यह तो आगे आपके समक्ष आएगा ही, परन्तु पहिले यह बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है, कि उसकी साधना की आधार भूमिका क्या थी ! आपको संक्षेप में बतलाया जा चुका है, कि आनन्द का जीवन क्षुद्र परिधि से आवृत नहीं था । जीवन की क्षुद्र - परिधि में घिरा रहने वाला मनुष्य शाश्वत सुख और अखण्ड शान्ति का मार्ग नहीं पा सकता । सुख और शान्ति का मार्ग मानवोचित विशाल भावनाओं से निर्मित होता है । हमारे यहाँ कहा गया है आत्मौपम्येन सर्वत्र यः पश्यति सः पश्यति । जो वस्तु, जो बात और जो व्यवहार आप अपने लिए चाहते हैं; वही वस्तु आप दूसरों को भी दीजिए, वही बात आप दूसरों से भी कहिए और वही व्यवहार आप दूसरों के साथ भी कीजिए। यही ज्ञानी का प्रधान लक्षण है। आप तो संसार के सभी प्रकार के सुखों का भोग कर रहे हैं और आपका दुःखी पड़ौसी उसमें से कुछ भी नहीं पा रहा है। आपकी हवेली में रेडियो-संगीत की सुमधुर ध्वनि गूँज रही है, और आपके पड़ौसी की झौंपड़ियों में हाहाकार और चीत्कार मचा है, मगर आप अपने सुख संगीत में इस प्रकार डूबे हैं, कि अपने दुःखी पड़ौसी के चीत्कार की ओर बिल्कुल ध्यान ही नहीं दे रहे, उसे सुनना भी पसंद नहीं कर रहे, सान्त्वना के दो शब्द कहना तो दरकिनार उल्टे आप अपने रौब से उसे बन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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