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________________ समवसरण में प्रवेश । ७१ गाँधीजी विदेशी वस्तुओं के व्यवहार के विरोधी हैं, यह जानते हुए भी विदेशी सूत की माला उनके गले में डालने वाला व्यक्ति क्या वास्तव में उनकी इज्जत करता है ? उनकी इज्जत तो हाथ से काते हुए देशी सूत की माला पहनाने में ही है । यदि हम किसी के प्रति भक्ति प्रकट करना चाहते हैं, तो उसकी भावनाओं का आदर भी करना होगा, और उन भावनाओं को अपने जीवन में उतारने का प्रयत्न भी करना होगा। भावना सदा निर्मल रहनी चाहिए। भावना के अनुरूप कर्तव्य भी हो । जिसने मदिरा - पान को गर्हित समझ कर त्याग दिया है, उसे कोई मदिरा की बोतल ले जाकर भेंट करता है, तो मैं समझता हूँ, कि इससे बढ़कर गलती दूसरी नहीं हो सकती। भक्ति में भी विवेक रखना चाहिए। भक्ति का बड़ा महत्त्व है, और इतना बड़ा कि भक्ति है तो सब कुछ है, और भक्ति नहीं है तो कुछ भी नहीं है। भक्ति अङ्क स्थान पर है। अङ्क है तो बिन्दुओं का भी महत्त्व है और अङ्क नहीं तो बिन्दुओं का कोई महत्त्व नहीं । मगर भक्ति विवेक- शून्य नहीं होनी चाहिए । भक्ति के मार्ग में से जहाँ विवेक को हटा दिया गया, वहाँ भक्ति बड़ी विद्रूप हो गई। विवेक के अभाव में, अन्धभक्ति ने लोगों को कहाँ से कहाँ भटका दिया है। एक मुसलमान भक्ति के नाते, अपने खुदा के नाम पर गाय या बकरे की कुर्बानी कर देता है। आप ऐसा करते देख कर घबरा उठते हैं, और उससे कहते हैं— कुर्बानी क्यों करते हो ? वह कहता है, खुदा की इबादत करता हूँ । क्या आप उसकी बात मानने को तैयार हो जाएँगे ? कभी नहीं । आप कहेंगे यह खुदा की पूजा नहीं है। किसी का खून बहा कर खुदा की इबादत नहीं हो सकती, भक्ति नहीं हो सकती । गाय का रक्त बहा कर तुम जो भक्ति कर रहे हो, वह सच्ची भक्ति नहीं है । भक्ति करनी है, कुर्बानी करनी हैं, तो अपनी वासनाओं की कुर्बानी करो। भैंसे, गाय या बकरे की कुर्बानी करने से क्या होगा । जब यज्ञ में पशुओं की बलि दी जाती थी, तो भगवान् महावीर ने क्या कहा था? उन्होंने यही तो कहा था, कि सच्ची भक्ति का मार्ग यह नहीं है। दूसरे की हिंसा करके खून बहा कर भक्ति नहीं हो सकती। यदि ऐसा किया जाएगा, तो उससे उत्थान नहीं होगा । यह तो डूबने का मार्ग है, तिरने का मार्ग नहीं है । कोई भी भगवान् ऐसे भक्त का आदर नहीं करेगा। भक्ति प्रेममय होनी चाहिए । जहाँ प्रेम है, वहाँ अहिंसा है, करुणा है । किसी का पिता घूम कर आया। वह पसीने से तर है और गर्मी से घबराया हुआ है । इतने में उसका पुत्र वहाँ आया। उसने पिता की हवा करने के लिए इधर-उधर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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