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________________ १२८ । उपासक आनन्द उसी समय ब्राह्मण, भिक्षु के पैरों में गिर पड़ा। बोला- 'मैंने ऐसा धर्म और ऐसा गुरु नहीं देखा। आप तो मेरे जीवन से चिपटने आए हो। आप मुझे तारना चाहते हैं । मेरे सौभाग्य ने ही आपके मन में यह प्रेरणा दी है ।' ब्राह्मण बौद्धधर्म में दीक्षित हो जाता है। हमारे यहाँ भी धर्म का यही संदेश आया है । प्रयत्न करो, और देखो कि जागृति आई है या नहीं ? साधु की, श्रावक की, सम्यग्दृष्टि की, भूमिका आई या नहीं ? नहीं आई है, तो फिर प्रयत्न करो। तुम्हारा काम प्रयत्न करना है, दबाव, जबर्दस्ती या छीना-झपटी करना नहीं । जैनधर्म की महान् भूमिका लेकर आए हो, तो महान् तैयारी करो । मैं दिल्ली गया। जहाँ ठहरा, उसके पीछे की जमीन में जामुन का पेड़ है। जब उस पेड़ में जामुन पकते हैं, तो बच्चों का शोर होने लगता है। बच्चे निशाना ताक कर पेड़ में पत्थर मारने लगते हैं, और फिर देखते हैं, कि निशाना लगा है, या नहीं। फल आ रहा है या नहीं। आया तो ठीक, नहीं तो फिर पत्थर मारते हैं, और फिर इन्तजार करते हैं । मैंने यह देखा और विचार किया— जीवन का यही आदर्श है, कि मनुष्य एक बार प्रयत्न शुरू कर दे, और देखे, कि क्या परिणाम आता है। यदि अभीष्ट परिणाम आ गया, तो ठीक ही है; न आया तो फिर इन्तजार करे और फिर प्रयत्न आरंभ कर दे । यही साधना है । इसी साधना के बल पर भगवान् ने इतना विशाल संघ कायम किया था, जिसमें बड़े-बड़े राजा-महाराजा, सेठ साहूकार, धनी - निर्धन, कुलीनअकुलीन आदि सभी वर्गों के लोग शामिल थे। संघ के पास देवता, इन्द्र एवं सम्राटों की बहुत बड़ी शक्ति थी, परन्तु धर्म प्रचार के लिए कभी उस शक्ति का बलात् उपयोग नहीं किया गया । 'जहासुहं, की अमृत वाणी की धारा ऐसी बही, कि चौदह हजार साधु, छत्तीस हजार साध्वियाँ और लाखों श्रावक और श्राविकाएँ भगवान् के चरणों में गिर गए । यही अमृत-वाणी जैनधर्म की अमिट ताकत है, और इसी में अहिंसा की भावना लहराती हुई दिखाई देती है । कोई साधु या श्रावक बनता है, तो अच्छा है, और कोई नवकारसी करता है, तो भी अच्छा है । कोई लाखों का दान देता है, तो अच्छी बात है, और कोई एक पैसा देता है, तो भी अच्छी बात है। यही जैनधर्म का आदर्श है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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