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________________ IIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII अध्यात्म योग JTZZZZIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIII भारतीय दर्शनों में योग-दर्शन एक अत्यन्त प्राचीन दर्शन है। योग-दर्शन में जीवन-साधना के सम्बन्ध में विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। भारतीय दर्शनों में व्यक्तित्व का विश्लेषण चार तत्वों में किया गया है. सर्वप्रथम आत्मा है, इसी को सच्चिदानन्द, परमात्मा, ब्रह्म और सिद्ध शब्दों द्वारा प्रकट किया जाता है। आत्मा, ज्ञान, सुख और शक्ति का पुंज है, किन्तु जब उसका सम्बन्ध बाह्य जगत के साथ होने लगता है, तब वे आत्मा की शक्तियाँ संकुचित अथवा अभिभूत हो जाती हैं। यह दूसरा तत्व है। सम्बन्ध जितना निविड़ होगा, उतनी ही शक्तियाँ अधिक अभिभूत रहेंगी। सांख्यदर्शन में इसको प्रकृति, वेदान्त में अविद्या, बौद्धदर्शन में तृष्णा, जैन दर्शन में मोहनीय कर्म, शैव दर्शन में पाश अथवा मल आदि शब्दों द्वारा प्रयुक्त किया गया है। इसी के फलस्वरूप परमात्मा या ब्रह्म जीव बना रहता है। तीसरा तत्व है, सूक्ष्म शरीर। इसमें सतरह तत्व हैं। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, पाँच प्राण, मन और अहंकार। चौथा तत्व है—स्थूल शरीर । यह हड्डी, माँस और रुधिर आदि सप्त धातुओं का बना है। इसके अतिरिक्त धन-सम्पत्ति, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा परिवार आदि बाह्य तत्व भी हमारे व्यक्तित्व के घटक हैं। उनकी प्राप्ति के लिए जीवन में निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। कहीं सफलता मिलती है, और कहीं विफलता। प्रत्येक घटना हमारे मन पर अच्छे या बुरे संस्कार छोड़ जाती है। उन संस्कारों को मिटाकर आत्मा को परिशुद्ध बनाना ही अध्यात्म योग का लक्षण है। यही कारण है कि हमारे भारतीय साहित्य में योग की विविध विधियाँ प्रचलित हैं। हठयोग मुख्यतया शरीर का उपचार करता है, उससे वात, पित्त एवं कफ आदि के विकार दूर होते हैं। जैन, योग, राग एवं द्वेष के निरोध पर बल देता है, जो कि मन की इच्छा रूप विकार है। अद्वैत वेदांत और सांख्य आदि दर्शन अज्ञान को दूर करने पर बल देते हैं। बौद्ध दर्शन में तृष्णा के निरोध पर बल दिया गया है। इस प्रकार भारत का योग घूमफिरकर आत्मा के शुद्धिकरण का उपाय बतलाता है। आत्मा को विशुद्ध बनाना ही भारतीय योग का एकमात्र लक्ष्य रहा है। चित्त की पाँच अवस्थाएँ भारतीय दर्शनों में यह एक चर्चा का विषय रहा है कि जब आत्मा अपने स्वभाव से निर्मल एवं निष्कलंक है, तब उसमें पाप कैसे और किधर से आ जाता है? इस सम्बन्ध में विभिन्न दर्शनों के विविध उत्तर हो सकते हैं। परन्तु, प्रस्तुत में हमें यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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