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________________ VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA - भारतीय जीवन और योग 58688055055000 2 01005066867608850898 220256896548565000000000000000 BRA988599437 6 : 00-25505868852686808080823 2008688888888560566600303082958 8dudies भारतीय संस्कृति की अनेकानेक विशेषताओं में, योग अपना पृथक महत्त्व रखता है। जिस प्रकार हमें सृष्टि का कण-कण ईश्वरी सत्ता से संबलित दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार योग का क्षेत्र भी हमारे लिये कभी संकुचित नहीं रहा। हमारी दृष्टि में एक सिरे पर ईश्वर है तो दूसरे सिरे पर योग। ईश्वर ने योग का आधार लेकर सृष्टिरचना की, यह वैदिक-परम्परा का शाश्वत-चिन्तन है। वैदिक काल से लेकर पुराण और इतिहास काल की सीमा योग में परिसमाप्त होती है। विदेशियों की दृष्टि में भारत सर्वथा योग-साधक देश रहा है। भारतीय-संस्कृति में योग एक रहस्य बनकर समाया हुआ है। चीनी यात्री हुएनत्सांग अपने यात्रा-वृत्तान्त में भारतीय योगियों की चर्चा एक मुग्ध दर्शक के रूप में करता है। हमारे लिये यहाँ योग शब्द का अर्थ विचारणीय है। इस शब्द की निष्पित्ति 'युज्' धातु से हुई है, 'युज' का अर्थ है---जोड़ना। इस प्रकार जो चेतना को साध्य के साथ जोड़ दे, वही योग है। साधन विभिन्नता के आधार पर योग के विभिन्न रूप हमें दिखाई पड़ते हैं। आत्मयोग, ज्ञानयोग भक्ति-योग, प्रेम-योग और कर्म-योग से लेकर भौतिक योग तक सीधी रेखा खींची जा सकती है। योग के सहारे भारतीय साधकों ने आत्म-दर्शन की उपलब्धि तो की ही है, साथ ही भौतिक सिद्धियों का भी लाभ उठाया है। योग-प्रवर्तक भगवान् शिव ने योग को सर्वथा भात्मदर्शन का साधन माना, उसे कभी अध्यात्म जगत से बाहर जाने का अवसर नहीं दिया, किन्तु आगे चलकर इसकी शत-शत धाराएँ फूट निकलीं। योगेश्वर कृष्ण के द्वारा रणभूमि में प्रथम बार योग का सम्बन्ध कर्म के साथ जुड़ा। अर्जुन को कर्मपथ पर आरूढ़ करने के लिये योगेश्वर ने वहाँ सहज भाव से 'व्याप्ति' का सहारा लिया। अपने ही सखा का विश्व रूप देखकर अर्जुन का मोह दूर हो गया। गीता ज्ञान की आवश्यकता ही उसके लिये नहीं रह गई, योगेश्वर ने उसे वह सम्बल भविष्य जीवन के लिए दिया। जो हो, आगे चल कर योग की गंगा सर्वथा समतल भूमि पर आ गई। योगी दत्त तथा मत्स्येन्द्रनाथ, गोरखनाथ आदि ने योग का सम्बन्ध पंचभूतात्मक सिद्धियों के साथ जोड़ दिया। योगी दत्त का रस-सम्प्रदाय एवं नाथ पंथियों का हठयोग दोनों ही अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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