SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आनन्द की जीवन-नीति । ७ इस वर्णन से आनन्द के आन्तरिक जीवन का भली भांति परिचय मिल जाता है। इससे यह पता भी चल जाता है, कि गृहस्थ को श्रावक बनने से पहले अपने जीवन को किस भूमिका तक ऊँचा उठाना चाहिए, और अपने अन्तःकरण को कितना विशाल बनाना चाहिए । श्रावकत्व का आधार गुण कर्म : आज श्रावकपन भी एक साधारण-सी वस्तु बन गई है— जैसे नकली मोती, नकली सोना, नकली दूध, घी, चावल आदि के अविष्कार ने इन वस्तुओं की असलियत को भुला - सा दिया है, उसी प्रकार धार्मिक क्षेत्र में भी नकली सम्यक्त्व • और नकली श्रावकत्व ने असलियत को हमारी आँखों से ओझल कर दिया है । जैसे ब्राह्मण आदि वर्ण, कर्म पर निर्भर थे, किन्तु धीरे-धीरे उनका संबंध जन्म के साथ जुड़ गया, और कर्म चाहे चाण्डाल के ही क्यों न हों, ब्राह्मण की सन्तान होने से ही व्यक्ति ब्राह्मण माना जाने लगा है, वैसे ही शुद्ध समीचीन दृष्टि का उन्मेष हुए बिना ही और श्रावक के वास्तविक गुणों का विकास हुए बिना ही आज जैन परिवार में जन्म लेने से ही मनुष्य 'श्रावक' कहलाने लगता है। इस प्रकार जब अनायास ही सम्यग्दृष्टि और श्रावक की उपाधियाँ मिल सकती हों, तो कौन उनके लिए मँहगा मूल्य चुकाने का प्रयत्न करेगा? जैन शास्त्रों में श्रावक का पद बहुत ऊँचा माना गया है । उस पद को प्राप्त करने से पहले अनेक सद्गुण प्राप्त करने पड़ते हैं । उन सद्गुणों को हमारे यहाँ विभिन्न शब्दों में बतलाया गया है। वे मार्गानुसारी के पैंतीस गुण कहलाते हैं । जैन साहित्य में इन गुणों का अच्छा खासा विवरण मिलता है। अपने व्यावहारिक जीवन में उन गुणों को प्राप्त करने वाला व्यक्ति ही सच्चा श्रावक कहलाने का अधिकारी होता है । नीति और धर्म : खेत में बीज बोने से पहले उसे जोत कर योग्य बनाया जाता है। उसमें पानी का सिंचन भी किया जाता है। तभी उसमें से लहलहाते अंकुर निकलते हैं, और धान्य का समुचित परिपाक होता है। यही बात जीवन में धार्मिकता के अंकुर उगाने के सम्बन्ध में भी है। जीवन को धर्ममय बनाने से पहले नीतिमय बनाना अनिवार्य है। नैतिकता के अभाव में धार्मिकता का प्रदर्शन किया जा सकता है, धार्मिकता प्राप्त नहीं की जा सकती है। आनन्द अत्यन्त नीति-निष्ठ, प्रामाणिक, विश्वासपात्र और उदार था । राजामहाराजा और सेठ- उ- साहूकार से लगाकर साधारण प्रजा का उस पर पूर्ण विश्वास था । सार्वजनिक कार्यों में तो उससे परामर्श किया ही जाता था, घरेलू कामों के विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy