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________________ पशु पालन एक कर्त्तव्यः ___ आनन्द ने बहुसंख्यक भैसों और चालीस हजार गायों का पालन करते हुए भी भेडें और बकरियां क्यों पाल रखीं थीं, इस प्रश्न का उत्तर हमें इस दूसरे दृष्टिकोण में अनायास ही मिल जाता है। भेड़ों और बकरियों की उसे कुछ आवश्यकता हो या न हो, उनसे उसकी कोई स्वार्थ-साधना हो या न हो, फिर भी पशु-पालन करना उसका कर्तव्य था एक वणिक के नाते भी और उन पशुओं का पालन करना अपने आप में ही उसका लाभ था। वह पशु जगत् के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना चाहता था। अपने ही लाभ की दृष्टि होती, तो आनन्द चालीस हजार गायों का भी क्यों पालन करता? उसके और उसके परिवार के लिए तो दस-बीस गायें भी पर्याप्त थीं। फिर भी वह चालीस हजार गायों का पालन-पोषण करता था। इससे भी यह प्रतीत होता है, कि आनन्द अपने लाभ की दृष्टि से नहीं, किन्तु पशुओं के प्रति अपना कर्तव्य-पालन करने की दृष्टि से पशुओं की प्रतिपालना के नाते भी। इस प्रकार हम कह सकते हैं, कि उन पशुओं का पालन करता था। यह उसकी जीवन-नीति थी। नीति और धर्म, दोनों जीवन विकास के लिए आवश्यक हैं। इस प्रकार आनन्द के जीवन पर दृष्टिपात करने से पता चलता है, कि वास्तविक मनुष्यता अपने आप में सीमित होकर रहने में नहीं है। सच्ची मनुष्येता का विकास तभी होता है, जब मनुष्य अपने आपको प्राणीमात्र में बिखेर देता है। जीवन की यही विशाल दृष्टि सच्ची धार्मिकता को जन्म देती है। आनन्द अपनी इस विशाल दृष्टि के कारण ही अवसर के प्राप्त होते ही धर्म की ओर मुड़ गया। आनन्द की जन-प्रियता: आनन्द का हृदय कितना विशाल था, शास्त्रकार अत्यन्त कौशल के साथ इस तथ्य का विवरण हमारे सामने रखते हैं। उन्होंने स्पष्ट कर दिया है, कि आनन्द अपना अथवा अपने परिवार का ही नहीं था; सारा वाणिज्यग्राम नगर और उससे बाहर दूरदूर तक का मानव समूह उसके लिए अपना था। सबके प्रति उसकी आत्मीयता थी और सभी जनता उसे अपना समझती थी। उसके विषय में कहा गया है। 'से णं आणंदे गाहावई वहूणं राईसर० जाव सत्थ वाहाणं बहुसु कज्जेसु, कारणेसु, मंतेसु, कुडुम्बेसु, गुझेसु य, रहस्सेसु य, निछएसु य, ववहारेसु य, आपुच्छणिज्जे, सयस्स वि कुडुम्बस्स मेढी, पमाणं, आहारे, आलम्बणे, चक्खु, मेढिभूए जाव सव्व-कज्ज वड्डावणए यावि होत्था।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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