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________________ मा पडिबंधं करेह । १३५ लिहाज से वह बड़ी उपयोगी चीज थी। मगर आज तो वह व्यवस्था लगभग नष्ट हो चुकी है, और भारतीय जन उसके मुर्दे को ही गले लगाए फिरते हैं। यही कारण है, कि उससे हमारा कोई कल्याण नहीं हो रहा है । परन्तु जब वह अपने असली रूप में प्रचलित थी, तब उसकी बड़ी उपयोगिता थी । कल्पना कीजिए, किसी जगह सब लोग गारा ही गारा उठाने वाले हों, ईंट बनाने वाले और उठाने वाले ही हों, और राज न हो, मकान चुनने की कला जानने वाला कोई न हो, तो क्या मकान बन जाएगा। गारे का ढेर लग सकता है, और ईंटों का पहाड़ बन सकता है, किन्तु बुद्धि और प्रतिभा के अभाव में मकान नहीं बन सकता । समाज के भवन का निर्माण करने के लिए भी एक ऐसा वर्ग चाहिए, जो बुद्धि वाला हो, सोचा करता हो, चिन्तन किया करता हो, समाज की क्या-क्या आवश्यकताएँ हैं, और वे किस प्रकार पूर्ण की जा सकती हैं, इस बात की विचारणा करता रहे, और जो समाज के उत्थान और पतन को बारीक निगाह से देखता रहे, उनके कारणों की मीमांसा करे, और उत्थान के उपायों को अमल में लाने की प्रेरणा देता रहे, और पतन के कारणों से सावधान कहता रहे। यही वर्ग, वह वर्ग हैं, जो जनता को शिक्षा देता है, सूचना देता है, और उसके नैतिक उत्थान के लिए आवश्यक चिन्तन करता है । इस प्रकार यह वर्ग समाज- शरीर का मस्तिष्क है। शरीर में मस्तिष्क का स्थान महत्त्वपूर्ण है। मस्तिष्क खराब हो जाता है, तो शरीर का कोई मूल्य नहीं रहता। इसी प्रकार समाज में बुद्धि वाले, चिन्तन करने वाले लोग न रहें, तो समाज का शरीर पागलों का शरीर बन जाए। फिर वह ठीक रूप में काम भी न कर सके। इसीलिए इस वर्ग की समाज को नितान्त आवश्यकता है, और इस चिन्तनशील वर्ग को हमारे यहाँ ब्राह्मण वर्ग या ब्राह्मण वर्ण कहते हैं । ब्राह्मणत्व जन्म से नहीं, वृत्ति से है। जन्म से नहीं, गुण-कर्म से माना गया है। 1 क्षत्रिय वर्ग को समाज - शरीर की भुजाएँ समझिए। शरीर पर हमला होता है, तो सबसे पहले भुजाएँ ही उसका प्रतीकार करती हैं। इस प्रकार जनता की और देश की रक्षा का भार जिस वर्ग पर डाला गया था, वह क्षत्रिय वर्ण कहलाया । समाज में वैश्यों की भी बड़ी उपयोगिता है । वे समाज- शरीर के पेट हैं। मनुष्य की थाली में जो भोजन हैं, उसे उठाकर पेट में डालता है। वह भोजन पेट में जमा होता है; किन्तु सिर्फ पेट के ही काम नहीं आता है। पेट सारे शरीर में उसका वितरण करता है। वह मांस और रक्त आदि के रूप में सारे शरीर में रमण करता है । कदाचित् पेट कहे, कि मुझे तो मिल गया, सो मिल गया। अब वह और किसी को नहीं मिल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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