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________________ | आस्तिक आनन्द [१११|| बिगुल बजता है,तब सच्चा सिपाही कोठे में बंद नहीं रह सकता। वह सच्चा सिपाही, जिसके अन्दर वीरता बोल रही है, जो अपने देश के सम्मान और प्रतिष्ठा के लिए अपने प्राण हथेली पर रखता है, वह छिप कर नहीं बैठ सकता। वह तो सबसे आगे होगा। हाँ, जिसके जीवन में पूर्ण भावनाएँ नहीं हैं, वह भले ही कहीं जाकर छिप जाए। ___ जब प्रभु की वाणी का बाजा बजे, वासनाओं के साथ युद्ध करने का बाजा बजे, तो कोई भी भावना-शील साधक हाथ पर हाथ रखकर बैठा नहीं रह सकता। भगवान् की वाणी का नगाड़ा सुनकर हजारों साधक उनकी सेवा में तत्पर हो गए। गौतम जैसे साधक भी पहुँचे, और आनन्द जैसे साधक भी पहुंचे। उन्होंने अपना जीवन आत्मकल्याण के लिए अर्पण कर दिया, विश्व के कल्याण में अपना कल्याण माना। उन्होंने थैलियों के मुँह को भी नहीं देखा, और वासनाओं को भी नहीं देखा। वे वासनाओं से लड़ने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने उसमें रस पाया और उनमें नवचेतना पैदा हो गई। साधना के क्षेत्र में आने के बाद शरीर की पूजा नहीं करनी है, शरीर का उपयोग-मात्र करना है, यह तथ्य उन्होंने हृदयंगम कर लिया। हमारे प्राचीन कथा-साहित्य में एक कहानी आई है. एक पाठशाला में दो सेठ के लड़के और एक राजा का लड़का तीनों साथ-साथ पढ़ते थे। आम तौर पर बड़ों की बड़ों से मित्रता हो ही जाती है। बड़ों की गरीबों से मित्रता हो, तो चार चाँद लग जाते हैं, परन्तु ऐसे प्रसंग बिरले ही होते हैं। सेठ के लड़के भी बड़े और राजा का लड़का भी बड़ा। तीनों में गहरी मित्रता थी। किन्तु जब अध्ययन समाप्त हुआ तो सेठ के दोनों लड़कों ने राजा के लड़के से किनारा करना शुरू किया। उसके साथ मिलना-जुलना कम कर दिया और बातचीत करना भी कम कर दिया। राजा के लड़के ने सोचा-यह क्या बात है ? ये बच-बच कर क्यों रहते हैं। ___ एक दिन तीनों मिल गए। राज़-पुत्र ने पूछा-भैया, क्या कारण है, कि आप मुझसे आजकल अलग-से रहने लगे हैं। क्या अब हम लोग मित्र नहीं रहे हैं। सेठ के लड़के बोले आपका मैत्री-भाव प्रशंसनीय है, परन्तु आप में और हम में अन्तर है। आप राजकुमार हैं, और हम वणिक हैं। हम भविष्य को देखकर चलने वाले ठहरे। वह वणिक् ही क्या, जो मौजूदा हालत को ही देखे, और भविष्य को न देखे। अध्ययन समाप्त होते ही हमें दुकान संभालनी है। आप राजा बनेंगे, और हम आपकी प्रजा होंगे। आपके फरमान निकलेंगे, और हम सिर झुका कर उन्हें तस्लीम करेंगे। हमारी-तुम्हारी यह दोस्ती अब कितने दिन और चल सकती है—यह सोचकर पहले से ही हम अपना रास्ता अलग बना रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003416
Book TitleUpasak Anand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Vijaymuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1995
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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