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२०६ । उपासक आनन्द
और कछुआ अपने अंङ्गो को जैसे समेट लेता है, वैसे ही यह पुरुष जब सब और से अपनी इन्द्रियों को इन्द्रियों के विषयों से समेट लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर होती है।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । रसवर्जं रसोऽप्यस्य पर दृष्टवा निवर्तते ॥
यद्यपि इन्द्रियों के द्वारा विषयों को न ग्रहण करने वाले पुरुष के भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परन्तु राग नहीं निवृत्त होता और इस पुरुष का तो राग भी परमात्मा को साक्षात् करके निवृत्त हो जाता है।
७
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥
और हे अर्जुन! जिससे कि यत्न करते हुए बुद्धिमान् पुरुष के भी मन को यह प्रमंथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ बलात्कार से हर लेती हैं।
८
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥
इसलिये मनुष्य को चाहिये कि उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण, स्थित होवे, क्योंकि जिस पुरुष के इन्द्रियाँ वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।
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९
ध्यायतो विषयान्पुंसः विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
और हे अर्जुन! मन सहित इन्द्रियों को वश में करके मेरे परायण न होने से मन के द्वारा विषयों का चिन्तन होता है और विषयों को चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
१०
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृति - विभ्रमः । स्मृतिभ्रंशादबुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
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