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२०२। उपासक आनन्द
धर्म में रमण करने वाला, धर्म में रत, धर्म का चिन्तन करने वाला, धर्म का अनुसरण करने वाला भिक्षु सच्चे धर्म से च्युत नहीं होता।
यो मुख संजतो भिक्खु,
मन्त भाणी अनुद्धतो। अत्थं धम्मं च दीपेति,
मधुरं तस्य भासितं॥ जो वाणी का संयमी है, जो मनन करके बोलता है, जो उद्धत नहीं है, जो अर्थ और धर्म को प्रकट करता है, उस व्यक्ति का भाषण मधुर होता है।
२२ चक्सुना संवरो साधु,
साधु सोतेन संवरो। घाणेन संवरो साधु,
साधु जि ह्वाय संवरो॥ आँख का संयम अच्छा है। कान का संयम अच्छा है। नाक का संयम अच्छा है। जीभ का संयम अच्छा है।
२३ कायेन संवरो साधु,
साधु वाचाय संवरो। मनसा संवरो साधु,
साधु सब्बत्थ संवरो॥ शरीर का संयम अच्छा है। वाणी का संयम अच्छा है। मन का संयम अच्छा है। समस्त इन्द्रियों का संयम रखने वाला भिक्षु दुःखों से मुक्त होता है।
२४ कायप्पकोपं रक्खेय्य,
कायेन संवुतो सिया। काय दुच्चरितं हित्वा,
कायेन सुचरितं चरे॥
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