Book Title: Upasak Anand
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 208
________________ IIIIIIIIIIIIIIIII अपरिग्रह-सूत्र न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा। मुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इइ वुतं महेसिणा।। प्राणीमात्र के संरक्षक ज्ञातपुत्र (भगवान् महावीर) ने कुछ वस्त्र आदि स्थूल पदार्थों को परिग्रह नहीं बतलाया है। वास्तविक परिग्रह तो उन्होंने किसी भी पदार्थ पर मूर्छा का—आसक्ति का रखना बतलाया है। धण-धन्न पेसवग्गेसु, परिग्गहविवज्जणं। सव्वारंभ-परिच्चाओ, निम्ममत्तं सुदुक्करं। पूर्ण संयमी को धन-धान्य और नौकर-चाकर आदि सभी प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना होता है। समस्त पापकर्मों का परित्याग करके सर्वथा निर्ममत्व होना तो और भी कठिन बात है। बिडमुब्भेइमं लोणं, तेल्लं सप्पिं च फाणियं। न ते सन्निहिमिच्छन्ति, नायपुत्त-वओरया॥ जो संयमी ज्ञातपुत्र (भगवान् महावीर) के प्रवचनों में रत हैं, वे बिड़ और उद्भेद्य आदि नमक तथा तेल, घी, गुड़ आदि किसी भी वस्तु के संग्रह करने का मन में संकल्प तक नहीं लाते। जं पि वत्थं च पायं वा, कंबलं पायपुंछणं। तं पि संजमलज्जट्ठा, धारेन्ति परिहरन्ति य॥ परिग्रह विरक्त मुनि जो भी वस्त्र, पात्र, कम्बल और रजोहरण अदि वस्तुएँ रखते हैं- काम में लाते हैं। (इनके रखने में किसी प्रकार की आसक्ति का भाव नहीं सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्खण-परिग्गहे। अवि अप्पणो वि देहम्मि, नाऽऽयरन्ति ममाइयं॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222