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१९४ । उपासक आनन्द
ब्रह्मचर्य - रत भिक्षु को शरीर की शोभा और टीप-टाप का कोई भी श्रृंगार सम्बन्धी काम नहीं करना चाहिए।
१६
सद्दे रुवे य गन्धे य, रसे कासे तहेव य ।
पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ॥
ब्रह्मचारी भिक्षु को शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श का - इन पाँच प्रकार के काम-गुणों को सदा के लिए छोड़ देना चाहिए।
१७
दुज्जए कामभोगे य, निच्चसो परिवज्जए ।
कट्टणाणि सव्वाणि, वज्जेज्जा पणिहाणवं ॥
स्थिर चित्त, भिक्षु, दुर्जय काम-भागों को हमेशा के लिए छोड़ दे। इतना ही नहीं, जिनसे ब्रह्मचर्य में तनिक भी क्षति पहुँचने की सम्भावना हो, उन सब शंका स्थानों का भी उसे परित्याग कर देना चाहिए।
१८
कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥
देवताओं सहित समस्त संसार के दुःख का मूल एकमात्र काम-भागों की वासना ही है। जो साधक इस सम्बन्ध में वीतराग हो जाता है, वह शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के दुःखों से छूट जाता है।
१९
देवदानवगन्धव्वा, जक्खरक्खसकिन्नरा | बंभारि नमसन्ति, दुक्करं जे करेन्ति ते ॥
जो मनुष्य इस भांति दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसे देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर आदि सब नमस्कार करते हैं।
२०
एव धम्मे धुवे निच्चे, सासए जिणदेसिए ।
सिद्धा सिज्झन्ति चाणेणं, सिज्झिस्सन्ति तहा परे ॥
यह ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और जिनोपदिष्ट है। इसके द्वारा पूर्णकाल में कितने ही जीव सिद्ध हो गये हैं, वर्तमान में हो रहे हैं, और भविष्य में
होंगे।
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