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ब्रह्मचर्य-सूत्र (१९३ ।
ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को स्त्रियों का कूजन (बोलना) रोदन, गीत, हास्य, सीत्कार और करुण क्रन्दन-जिसके सुनने पर विकार पैदा होते हैं-सुनना छोड़ देना चाहिए।
हासं किडे रइं दप्पं, सहस्साऽवत्तासियाणि य।
बंभचेर रओ थीणं, नाणुचिन्ते कयाइ वि॥ ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु स्त्रियों के पूर्वानुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, दर्प, सहसा-वित्रासन आदि कार्यों को कभी भी स्मरण न करे।
१२ पणियं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्डणं।
बंभचेर रओ भिक्खू, निच्चसो परिवन्जए॥ ब्रह्मचर्य-रत भिक्षु को शीघ्र ही वासना वर्द्धक पुष्टिकारी भोजन-पान का सदा के लिए परित्याग कर देना चाहिए।
धम्मलद्धं मियं काले, जत्तथं पणिहाणवं।
नाइमत्तं तु भुजेज्जा, बंभचेर रओ सया॥ ब्रह्मचर्य-रत स्थिरचित्त भिक्षु को संयम-यात्रा के निर्वाह के लिए हमेशा धर्मानुकूल विधि से प्राप्त परिमित भोजन ही करना चाहिए। कैसी ही भूख क्यों न लगी हो, लालसावश अधिक मात्रा में कभी भी भोजन नहीं करना चाहिए।
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जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे, समारुओ नोवसमं उवेइ। __ एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो,
न बंभयारिस्स हिताय कस्सई॥ जैसे बहुत अधिक ईंधन वाले जंगल में पवन से उत्तेजित दावाग्नि शान्त नहीं होती, उसी तरह मर्यादा से अधिक भोजन करने वाले ब्रह्मचारी की इन्द्रियाग्नि भी शान्त नहीं होती। अधिक भोजन किसी को भी हितकर नहीं होता।
विभूसं परिवज्जेज्जा सरीर परिमडणं। बंभचेर रओ भिक्ख, सिंगारत्थं न धारए।
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