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महावीर-वाणी । १८५
संबुन्झमाणे उ नरे मइम, पावाउ अप्पाणं निवट्टएज्जा। हिंसप्पसूयाई दुहाई मत्ता,
वेरानुबन्धीणि महब्भयाणि॥ सम्यग्बोध को जिसने प्राप्त कर लिया, ऐसा बुद्धिमान पुरुष हिंसा से उत्पन्न होने वाले वैर-वर्द्धक एवं महाभयंकर दु:खों को जानकर अपने को महापाप-कर्म से बचाये।
समया सव्वभूएसु , सत्तु-मित्तेसु वा जगे।
पाणाइ वायविरइ, जावज्जीवाए दुक्करं॥ संसार में प्रत्येक प्राणी के प्रति फिर भले ही वह शत्रु हो या मित्र-समभाव रखना, तथा जीवन पर्यन्त छोटी-मोटी सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करना वास्तव में बड़ा ही दुष्कर है।
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