Book Title: Upasak Anand
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 201
________________ १८८ । उपासक आनन्द विचारवान मुनि को वचन-शुद्धि का भलीभाँति ज्ञान प्राप्त करके दूषित वाणी सदा के लिए छोड़ देनी चाहिए और खूब सोच-विचार कर बहुत परिमित और निर्दोष वचन बोलना चाहिए। इस तरह बोलने से सत्पुरुषों में महान प्रशंसा प्राप्त होती है। तहेव काणं काणे त्ति, पंडगं पंडगे त्ति वा। वाहियं वा वि रोगित्ति, तेणं चोरे त्ति नो वए॥ काने को काना, नपुंसक को नपुंसक, रोगी को रोगी और चोर को चोर कहना यद्यपि सत्य है, फिर भी ऐसा नहीं कहना चाहिए। (क्योंकि इससे उन व्यक्तियों को दुःख पहुँचता है।) ११ वितहं वि तहामुत्तिं, जं गिरं भासए नरो। तम्हा सो पुट्ठो पावेणं, किं पुण जो मुसं वए॥ जो मनुष्य भूल से भी मूलत: असत्य, किन्तु ऊपर से सत्य मालूम होने वाली भाषा बोल उठता है, जबकि वह भी पाप से अछूता नहीं रहता, तब भला जो जानबूझकर असत्य बोलता है, उसके पाप का तो कहना ही क्या ? तहेव फरुसा. भासा, गुरुभूओवघाइणी। सच्चा वि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो॥ जो भाषा कठोर हो, दूसरों को दुःख पहुँचाने वाली हो वह सत्य भी क्यों न हो नहीं बोलनी चाहिए। क्योंकि उससे पाप का आस्रव होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222