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|१७६ । उपासक आनन्द |
देखना है कि योग दर्शन इसके सम्बन्ध में क्या समाधान देता है। हमारा जीवन अत्यन्त जटिल है, उसकी जटिलता का कारण न आत्मा है, न शरीर तथा इन्द्रियाँ हैं, उसका मुख्य कारण है—मनुष्य का चित्त। चित्त यदि प्रसन्न है, तो सर्वत्र सुख एवं आनन्द ही है। चित्त यदि विषण्ण है, तो सर्वत्र दुःख एवं क्लेश ही है। अत: चित्त की साधना ही योग की मुख्य साधना मानी जाती है। योग में चित्त के ५ भेद किए गए हैं—मूढ, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध। मूढ चित्त तमोगुण प्रधान होता है। इस अवस्था में व्यक्ति अज्ञान तथा आलस्य से घिरा रहता है। यह अवस्था मुख्यतया पशु तथा कीट-पतंगों में पाई जाती है। अविक्षिप्त मनुष्य भी चित्त की इसी अवस्था में होते हैं। क्षिप्त चित्त में रजोगुण की प्रधानता रहती है, यह चित्त सदा चंचल बना रहता है। वह कभी इधर दौड़ता है, और कभी उधर। क्षिप्त चित्त किसी भी विषय में एक क्षण के लिये भी स्थिर नहीं हो पाता। विक्षिप्त चित्त वह है, जिसमें सत्व गुण प्रधान रहता है। यहाँ रज और तम दोनों गौण रूप से रहते हैं, किन्तु मुख्यता सत्व की रहती है। इस कारण मनुष्य की प्रवृत्ति धर्म, वैराग्य और त्याग में रमी रहती है। पर, बीच-बीच में रजोगुण चित्त को विक्षिप्त करता रहता है। इन तीन चित्तों वाले मनुष्य योग-साधना नहीं कर सकते। यदि उत्साहवश योग-साधना प्रारम्भ भी करते हैं, तो शीघ्र ही पथ-भ्रष्ट भी हो जाते हैं। चतुर्थ चित्त है—एकाग्र। इसका अर्थ है—मन का किसी एक विषय पर स्थिर होना। जब रजोगुण और तमोगुण का प्रभाव घट जाता है, तब चित्त इधर-उधर भटकना छोड़कर एक ही विषय पर स्थिर हो जाता है। पांचवाँ चित्त है-निरुद्ध। इसमें वह सर्वथा विकल्पों से शून्य हो जाता है। किसी भी विषय का चिंतन नहीं रहता। चित्त पर-स्वरूप में न जाकर स्वयं अपने स्वरूप में रुका रहता
है।
पाँच क्लेश अध्यात्म-योग का मुख्य विषय यह है कि हम अपने विघ्नों को तथा अपनी बाधाओं को दूर कैसे करें ? हमारे जीवन को प्रभावित करने वाले जो शुभ या अशुभ संस्कार हैं, उनके रहते हुए हम अपने लक्ष्य पर कभी नहीं पहुँच सकते। यदि कोई व्यक्ति कहीं दूर देश की यात्रा करने जाता है, तो यह आवश्यक है कि उसे अपने गन्तव्य पथ का पूरा ज्ञान होना चाहिए। उसे यह भी सोच लेना चाहिए, कि जिस पथ पर होकर मैं जाना चाहता हूँ, उस पथ में कहीं पर विषमता, अवरोध तथा विघ्न तो नहीं है। इन विघ्नों का परिज्ञान इसलिए आवश्यक है कि वह पथिक अपने पथ से विचलित होकर लक्ष्य भ्रष्ट न हो जाय। अध्यात्म योग में मुख्य रूप से यह बतलाया गया है कि अपने पथ पर अग्रसर होने से पूर्व यह विचार कर लो, कि इसमें कितने विघ्न और कितने अवरोध आ सकते हैं। अध्यात्म योग में उन विघ्न और अवरोधों
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