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उपासक प्रतिमाएँ । १८१ नवी प्रतिमा धारण करने वाला श्रावक आरम्भ करवाने का भी त्याग कर देता हैं। इस अवस्था में वह उद्दिष्ट भक्त अर्थात् अपने निमित्त से बने हुए भोजन का परित्याग नहीं करता। इस प्रतिमा का नाम प्रेष्य-परित्याग-प्रतिमा है, क्योंकि इसमें आरम्भ के निमित्त किसी को कहीं भेजने-भिजवाने का त्याग होता है। आरम्भ-वर्धक परिग्रह का त्याग होने के कारण इसे परिग्रहत्याग-प्रतिमा भी कहते हैं। ___ दसवीं प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का भी त्याग कर दिया जाता है। इस प्रतिमा में स्थित श्रमणोपासक उस्तरे से मुण्डित होता हुआ शिखा धारण करता है अर्थात् सिर को एकदम साफ न कराता हुआ चोटी जितने बाल सिर पर रखता है। इससे यह मालूम होता है, कि गृहस्थ के सिर पर चोटी रखने की रूढ़ प्रथा जैन-परम्परा में भी मान्य रही है। दसवीं प्रतिमा धारण करने वाले गृहस्थ को जब कोई एक बार अथवा अनेक बार बुलाता है, या एक अथवा अनेक प्रश्न पूछता है, तब वह दो ही उत्तर देता है। जानने पर कहता है, कि मैं यह जानता हूँ। न जानने की स्थिति में कहता है, कि मुझे यह मालूम नहीं। चूँकि इस प्रतिमा में उद्दिष्ट भक्त का त्याग अभिप्रेत होता है। अतः इसका नाम उद्दिष्ट-भक्तत्याग प्रतिमा है।
ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम श्रमण-भूत-प्रतिमा है। श्रमणभूत का अर्थ होता है, श्रमण के सदृश। जो गृहस्थ होते हुए भी साधु के समान आचरण करता है अर्थात् श्रावक होते हुए भी श्रमण के समान क्रिया करता है, वह श्रमणभूत कहलाता है। श्रमणभूतप्रतिमा-प्रतिपन्न श्रमणोपासक बालों का उस्तरे से मुण्डन करवाता है अथवा हाथ से लुंचन करता है। इस प्रतिमा में चोटी नहीं रखी जाती। वेष, भाण्डोपकरण एवं आचरण श्रमण के ही समान होता है। श्रमणभूत श्रावक मुनिवेष में अनगारव्रत आचारधर्म का पालन करता हुआ जीवनयापन करता है। सम्बन्धियों व जाति के लोगों के साथ यत्किंचित् स्नेह बन्धन होने के कारण उन्हीं के यहाँ से अर्थात् परिचित घरों से ही भिक्षा ग्रहण करता है। भिक्षा लेते समय वह इस बात का ध्यान रखता है, कि दाता के यहाँ उसके पहुँचने के पूर्व जो वस्तु बन चुकी होती है, वही वह ग्रहण करता है, अन्य नहीं। यदि उसके पहुंचने के पूर्व चावल पक चुके हों और दाल न पकी हो तो वह चावल ले लेगा, दाल नहीं। इसी प्रकार यदि दाल पक चुकी हो, और चावल न पके हों, तो वह दाल ले लेगा, चावल नहीं। पहुँचने के पूर्व दोनों चीजें बन चुकी हों, तो दोनों ले सकता है, और एक भी न बनी हो, तो एक भी नहीं ले सकता। __ प्रतिमाएँ गुणस्थानों की तरह आत्मिक विकास के बढ़ते हुए अथवा चढ़ते हुए सोपान हैं। अतः उत्तर-उत्तर प्रतिमाओं में पूर्व-पूर्व प्रतिमाओं के गुण स्वतः समाविष्ट होते जाते हैं। जब श्रावक ग्यारहवीं अर्थात् अंतिम प्रतिमा की आराधना करता है, तब
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