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१८२ । उपासक आनन्द
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उसमें प्रारम्भ से लेकर अन्त की समस्त प्रतिमाओं के गुण रहते हैं। इसके बाद अपनी शक्ति के अनुसार चाहे वह मुनिधर्म की दीक्षा ग्रहण कर सकता है, चाहे उसी प्रतिमा को धारण किये रह सकता है। इन प्रतिमाओं में से कुछ के लिए अधिकतम काल मर्यादा भी बतलाई गई है। उदाहरण के लिए पांचवीं प्रतिमा का अधिकतम काल पांच मास, छठी का छः मास यावत्, ग्यारहवीं का ग्यारह मास है । यह एक साधारण विधान है। साधक के सामर्थ्य के अनुसार इसमें यथोचित परिवर्तन भी हो सकता है।
श्वेताम्बर व दिगम्बर- परम्परा - सम्मत-उपासक-प्रतिमाओं के क्रम तथा नामों में नगण्य अन्तर है। श्वेताम्बर - परम्परा में एकादश उपासक - प्रतिमाओं के नाम क्रमानुसार इस प्रकार मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५. नियम, ६. ब्रह्मचर्य, ७. सचित्तत्याग, ८. आरम्भत्याग, ९. प्रेष्यपरित्याग अथवा परिग्रहत्याग, १०. उद्दिष्टभक्तत्याग, ११. श्रमणभूत । दिगम्बर परम्परा में इन प्रतिमाओं के नाम इस क्रम से मिलते हैं : १. दर्शन, २. व्रत, ३. सामायिक, ४. पौषध, ५. सचित्तत्याग, ६. रात्रिभुक्तित्याग, ७. ब्रह्मचर्य, ८. आरम्भत्याग, ९. परिग्रहत्याग, १०. अनुमतित्याग, ११. उद्दिष्टत्याग । उद्दिष्टत्याग के दो भेद होते हैं जिनके लिए क्रमशः क्षुल्लक और एलक शब्दों का प्रयोग होता है। ये श्रावक की उत्कृष्ट अवस्थाएँ होती हैं । श्वेताम्बर व दिगम्बर सम्मत प्रथम चार नामों में कोई अन्तर नहीं है । सचित्तत्याग का क्रम दिगम्बर- परम्परा में पांचवाँ है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में सातवाँ है। दिगम्बराभिमत रात्रि - भुक्तित्याग श्वेताम्बराभिमत पांचवीं प्रतिमा नियम के अन्तर्गत समाविष्ट है । ब्रह्मचर्य का क्रम श्वेताम्बर - परम्परा में छठा है, जबकि दिगम्बर- परम्परा में सातवाँ है । दिगम्बरसम्मत अनुमतित्याग श्वेताम्बरसम्मत उद्दिष्टभक्तत्याग के ही अन्तर्गत समाविष्ट हो जाता है, क्योंकि इस प्रतिमा में श्रावक उद्दिष्टभक्त ग्रहण न करने के साथ ही किसी प्रकार के आरम्भ का समर्थन भी नहीं करता । श्वेताम्बराभिमत श्रमण-भूतप्रतिमा ही दिगम्बराभिमत उद्दिष्टत्यागप्रतिमा है क्योंकि इन दोनों में श्रावक का आचरण भिक्षुवत् होता है। क्षुल्लक व एलक श्रमण के ही समान होते हैं।
★ डॉ मोहनलाल मेहता
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