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|१७४ | उपासक आनन्द |
जो मीमांसा तथा ध्यान के जो भेद-प्रभेद बौद्ध-परम्परा में उपलब्ध हैं, वे अन्यत्र कहीं नहीं मिलेंगे। बुद्ध का विपश्यना ध्यान अत्यन्त प्रसिद्ध है। ध्यान के सम्बन्ध में बौद्धपरम्परा में पाली तथा संस्कृत भाषा में अनेक ग्रन्थ उपनिबद्ध हो चुके हैं। अत: बुद्ध ने अपने जीवन में जो सबसे बड़ी साधना की थी, वह ध्यान की साधना थी। बुद्ध को जिस सत्य की उपलब्धि हुई, वह ध्यान के द्वारा ही हुई। यही कारण है कि ध्यानविधा का विकास बौद्ध-परम्परा में सबसे अधिक हुआ है।
योग-साधना और उसके प्रकार योग-साधना भारत की धरती की प्रधान साधना रही है। महर्षि पतंजलि ने अपने योगसूत्र में योग के आठ अंगों का वर्णन किया है—यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। समाधि योग-साधना का फल है, और उसका साधन है ध्यान। शेष छह बातें ध्यान की पूर्व तैयारी हैं। महर्षि पतंजलि ने योग के द्वितीय अंग नियम में तप को स्वीकार कर लिया है। तप के अभाव में आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार और धारणा हो नहीं सकती। इसका अर्थ इतना ही है कि वैदिक-परम्परा में योग-साधना की मुख्यता है, और तप की गौणता रही है। इसके विपरीत जैन-परम्परा में मुख्यता प्रदान की है तप को और योग को गौण रूप में स्वीकार कर लिया गया है। जैन-परम्परा में योग की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि_मन, वचन और काय की क्रिया ही योग है। वह क्रिया दो प्रकार की हो सकती है—शुभ और अशुभ। अशुभ क्रिया पाप का कारण है और शुभ क्रिया पुण्य का। परन्तु, आगमों में एक अन्य महत्त्वपूर्ण शब्द का प्रयोग किया गया है, और वह शब्द है संवर। संवर में शुभ और अशुभ दोनों का निरोध हो जाता है। महर्षि पतंजलि ने भी चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग कहा है। इसका इतना ही अर्थ होता है कि जैन-परम्परा में तप को महत्त्व देते हुए भी संवर शब्द से योग को स्वीकार कर लिया है। बौद्ध-परम्परा में यद्यपि ध्यान की प्रमुखता रही है, तथापि ध्यान के उपनियमों में योग को तथा तप को स्वीकार कर लिया गया है। बौद्धपरम्परा में भी संवर शब्द प्रायः इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। बुद्ध ने स्वयं अपने जीवन में तप किया था, और अन्त में ध्यान पर पहुँच गये। भगवान् महावीर ने ध्यान को तप का एक भेद स्वीकार करके उसे अपनी साधना का अंग बना लिया था। इस प्रकार भारतीय साधना के मुख्य तीन ही अंग हैं. योग, तप और ध्यान।
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