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१७० । उपासक आनन्द
आकष्ट करती रहती हैं, अन्ततः उसका हृदय-बल क्षीण हो जाता है। स्थिरता का स्थान चंचलता ले लेती है। पतंजलि तथा हेमचन्द्राचार्य दोनों ने ही सिद्धियों की भर्त्सना की है।
जैन-जगत के श्रेष्ठ साधक श्रीमद् रायचन्द्र ने योग-साधकों की भावनामूलक स्थिति पर विचार करते हुए उन्हें तीन श्रेणियों में बाँटा है। वे कहते हैं
"मन्द विषय ने सरलता, सह आज्ञा सुविचार। करुणा कोमलतादि गुण, प्रथम भूमिका धार। रोक्या शब्दादिक विषय, संयम साधन राग। जगत इष्ट नहिं आत्म थी, मध्य पात्र महाभाग्य। नहिं तृष्णा जीव्यातणी, मरण योग नहिं क्षोभ।
महापात्र ते मार्गना, परम योग जित लोभ।" जिसकी विषयाशक्ति मन्द पड़ चुकी है, जो गुरु की आज्ञानुसार अपने को उपासना में एकरस बना चुका है, जिसमें दया-मृदुता आदि गुणों की सुलभता है, वह साधक प्रथम भूमिका में पहुंच चुका है।
जिसने शब्द स्पर्श, रस आदि पंचेन्द्रिय के भोगों को भुला दिया है, मन की वृत्ति का निरोध जिसके लिए कठिन नहीं रह गया है, जिसको दृष्टि संसार से हटकर आत्मोन्मुखी हो चुकी है, वह महाभागी साधक मध्य भूमिका में है, ऐसा जानना चाहिए।
फिर, जिसके हृदय से जीवन की तृष्णा और मरण का दुःख —दोनों ही मिट चुके हैं; जो जीवन-मृत्यु का विभेद भुला चुका है, वह योग-मार्ग की भूमिका में निश्चित रूप से सर्वोत्कृष्ट अधिकारी सिद्ध है।
योग-साधकों को यह तथ्य सदा ही हृदय में रखना है, कि योग की क्रिया द्वैतवाद की भूमि से प्रारम्भ होती है और उसका अन्त अद्वैतवाद में होता है। द्वैत के अभाव में योग की भावना पनप ही नहीं सकती है। योग के प्रथम सोपान-ध्यान क्षेत्र में अद्वैतवादी साधक को भी द्वैत की धारणा अपनानी ही पड़ेगी। साध्य को अपने से पृथक रख कर ही कोई साधक अपनी क्रिया आगे बढ़ा सकता है। इतना ही क्यों, वह यदि अपने लिए साध्य भी सर्वथा समीप का और स्थूल चुने तो श्रेष्ठ है। निर्गुण की पूँजी प्रथम अवस्था में काम नहीं देगी। प्रथम अवस्था में निर्गुण को अपने ध्यान में स्थित करना असम्भव नहीं, तो अत्यन्त कठिन अवश्य है। साधक को ऐसे प्रयोग में विफलता ही मिलेगी। प्रबुद्ध साधक का ध्यान, साध्य रूप गुरु से प्रारम्भ होता है।
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