Book Title: Upasak Anand
Author(s): Amarmuni, Vijaymuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 181
________________ १६८ । उपासक आनन्द | आकर्षणों को लेकर भारत व्यापी हो उठे। चिन्तकों की दृष्टि में यह काल योग का उत्कर्ष काल है, किन्तु अनुभवी साधकों की धारणा इसके विपरीत है। __ यह बताने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, कि विकास मार्ग पर बढ़ने वाला भारतीय योग उत्तरोत्तर जटिल से जटिलतर होता गया। आत्म-योग, ज्ञान-योग, भक्ति-योग, प्रेम-योग और कर्म-योग की भावनात्मक सरलता उससे दूर जा पड़ी, साधकों की साधना कठिन पड़ गई। योग के अंग, ध्यान के प्रकार तथा क्रियाओं में पूर्व की सहजता नहीं रही। शिष्य को पग-पग पर उच्चकोटि के साधक गुरु की आवश्यकता आ खड़ी हुई। गुरु की अनुज्ञा प्राप्त किये बिना तथा अपने अधिकार को समझे बिना पंचभूतों से सम्बद्ध योग की साधना सर्वथा निषिद्ध बताई गई। अस्तु, इस पुनरुत्थान युग में हमारे लिये योग को मूल रूप में ग्रहण करना ही श्रेयस्कर होगा। मात्र हठ-योग की लौकिक सिद्धियों के पीछे दौड़ने वाले आखिर में अपने को सर्वथा विफल ही अनुभव करते हैं। उच्चकोटि के साधक गुरु की प्राप्ति के बाद भी हमें आत्म-योग की ही साधना करनी चाहिए। योग मार्ग पर चलने वाले साधकों को सभी ने गहन मार्ग का पथिक बताया है। इस मार्ग में सफलता के लिए उत्कट लगन की आवश्यकता पड़ती है। शास्त्राभ्यास, गुरु से प्राप्त ज्ञान तथा आत्म-संवेदन की पूँजी तीनों को ही हेमचन्द्राचार्य योगसाधकों का मार्ग-संबल मानते हैं। इनमें से एक का भी अभाव साधक को निरस्त कर सकता है। आनन्दघनजी ने तो नमिनाथ-स्तुति में समय पुरुष के अंगों की गणना करते हुए सूत्र, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि तथा वृत्ति का उल्लेख किया ही है, परम्परा से प्राप्त अनुभव अथवा साम्प्रदायिक ज्ञान को भी आवश्यक बताया है। इन अंगों में से एक की भी अवगणना करने वाले को वे दुर्भव्य कहते हैं। परम्परा से प्राप्त ज्ञान के प्रति उपेक्षा दिखाने वाला तथा अपने अखण्ड अभ्यास को ही महत्त्व देने वाला साधक आनन्दघनजी की दृष्टि में आत्मवंचक भर है, और कुछ नहीं। योग शब्द की व्याख्या-किंचित् कथन-विभेद के साथ विभिन्न योग-सम्प्रदायों में समान रूप से ही गृहीत हुई है। पातंजल योग-दर्शनकार योग की व्याख्या करते हैं—'योगः चित्त-वृत्ति निरोधः।" चित्तवृत्ति के निरोध को योग बताने वाले पतंजलि की दृष्टि में क्रिया का महत्त्व उद्भासित है, तो जैन भाष्यकार 'युज्यते इति योगः' कहते हुए योग शब्द के मूल अर्थ पर जोर देते हैं। साध्य के साथ चित्त को जोड़ने वाला योग है—यह पातंल व्याख्या का उदाहरण है। जैन भाष्यकार की व्याख्या साधकों के हृदय तक अनायास ही पहुँचती है। यह स्पष्ट है कि योग शब्द का रूप दोनों ही व्याख्याकारों के समक्ष एक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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