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शमभावना 77777777777777WTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTTT
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मानव जीवन में भावना का बड़ा भारी महत्त्व है। मनुष्य अपनी भावनाओं से ही बनता बिगड़ता है। हजारों लोग दुर्भावनाओं के कारण मनुष्य के शरीर को पाकर राक्षस बन जाते हैं, और हजारों पवित्र विचारों के कारण देवों से भी ऊँची भूमिका प्राप्त कर लेते हैं एवं देवों के भी पूज्य बन जाते हैं। मनुष्य श्रद्धा का, विश्वास का, भावना का बना हुआ है; जो जैसा सोचता है, विचारता है, भावना करता है, वह वैसा ही बन जाता है। श्रद्धामयोऽयं पुरुष: यो यच्छ्रद्धः स एव सः'-गीता। 'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी।
सामायिक एक पवित्र व्रत है। दिन-रात का चक्र योंही संकल्प-विकल्पों में, इधर-उधर की उधेड़ बुन में निकल जाता है। मनुष्य को सामायिक करते समय दो घड़ी ही शान्ति के लिए मिलती हैं। यदि इन दो घड़ियों में भी मन को शान्त न कर सका, पवित्र न बना सका तो फिर वह कब पवित्रता की उपासना करेगा! अतएव प्रत्येक जैनाचार्य सामायिक में शुभ भावना भाने के लिए आज्ञा प्रदान कर गए हैं! पवित्र संकल्पों का बल अन्तरात्मा को महान् आध्यात्मिक शक्ति एवं विशुद्धि प्रदान करता है। आत्मा से परमात्मा के, नर से नारायण के पद पर पहुँचने का, यह विशुद्ध विचार ही स्वर्ण सोपान है।
सामायिक में विचारना चाहिए कि-'मेरा वास्तविक हित एवं कल्याण, आत्मिक सुख शान्ति के पाने एवं अन्तरात्मा को विशद्ध बनाने में ही है। इन्द्रियों के भोगों से मेरी मनस्तृप्ति कदापि नहीं हो सकती।' सामायिक के पथ पर अग्रसर होने वाले साधक को सुख की सामग्री मिलने पर हर्षोन्मत्त नहीं होना चाहिए और दुःख की सामग्री मिलने पर व्याकुल नहीं होना चाहिए, घबड़ाना नहीं चाहिए। सामायिक का सच्चा साधक सुख-दुःख को समभाव से भोगता है, दोनों को धूप तथा छाया के समान क्षणभंगुर मानता है।
सामायिक की साधना हृदय को विशाल बनाने के लिए भी है। अतएव जब तक साधक का हृदय विश्व प्रेम से परिप्लावित नहीं हो जाता, तब तक साधना का सुन्दर रंग निखर ही नहीं पाता। हमारे प्राचीन आचार्यों ने सामायिक के समभाव की परिपुष्टि के लिए चार भावनाओं का वर्णन किया है... मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य।
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