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|१६२ । उपासक आनन्द |
मनुष्य की लोभ व्रत्ति पर अंकुश रखता है, हिंसा से बचाता है। मनुष्य व्यापार आदि के लिए दूर देशों में जाता है, वहाँ की प्रजा का शोषण करता है। जिस किसी भी उपाय से धन कमाना हो जब मुख्य हो जाता है, तो एक प्रकार से लूटने की मनोवृत्ति हो जाती है। अतएव जैनधर्म का सूक्ष्म आचार शास्त्र इस प्रकार की मनोवृत्ति में भी पाप देखता है। वस्तुतः पाप है भी। शोषण से बढ़कर और क्या पाप होगा? आज के युग में यह पाप बहुत बढ़ चला है। दिग्व्रत इस पाप से बचा सकता है। शोषण की भावना से न विदेशों में अपना माल भेजना चाहिए, और न विदेश का माल अपने देश में लाना चाहिए।
(२) भोगोपभोग परिणाम व्रत = जरूरत से ज्यादा भोगोपभोग सम्बन्धी चीजें काम में न लाने का निमय करना, प्रस्तुत व्रत का अभिप्राय है। भोग का अर्थ एक ही बार काम में आने वाली वस्तु है। जैसे--अन्न, जल विलेपन आदि। उपभोग का अर्थ बार-बार काम में आने वाली वस्तु है। जैसे मकान, वस्त्र, आभूषण आदि। इस प्रकार अन्न, वस्त्र आदि भोग विलास की वस्तुओं की आवश्यकता के अनुसार परिमाण करना चाहिए। साधक के लिए जीवन को भोग के क्षेत्र में सिमटा हुआ रखना अतीव आवश्यक है। अनियंत्रित जीवन पशुजीवन होता है।
(३) अनर्थदण्ड विरमण व्रत = बिना किसी प्रयोजन के व्यर्थ ही पापाचरण करना, अनर्थ दण्ड है। श्रावक के लिए इस प्रकार अशिष्ट भाषण, आदि का तथा किसी को चिडाने आदि व्यर्थ की चेष्टाओं का त्याग करना आवश्यक है। काम वासना को उद्दीप्त करने वाले सिनेमा देखना, गंदे उपन्यास पढ़ना, गंदा मजाक करना, व्यर्थ ही शस्त्रादि का संग्रह कर रखना आदि अनर्थ दण्ड में सम्मिलित हैं। चार शिक्षा व्रत:
(१) सामायिक = दो घड़ी तक पापकारी व्यापारों का त्याग कर समभाव में रहना सामायिक है। राग द्वेष बढ़ाने वाली प्रवृत्तियों का त्याग कर मोह माया के दुःख संकल्पों को हटाना, सामायिक का मुख्य उद्देश्य है।
(२) देशावकाशिक = जीवन भर के लिए स्वीकृत दिशा परिमाण में से और भी नित्य प्रति गमनादि की सीमा कम करते रहना, देशावकाशिक व्रत है। देशावकाशिक व्रत का उद्देश्य जीवन को नित्य प्रति की बाह्य प्रदेशों में आसक्ति रूप पाप क्रियाओं से बचाकर रखना है।
(३) पौषधव्रत = एक दिन और एक रात के लिए अब्रह्मचर्य, पुष्प-माला आदि शृङ्गार, शस्त्र धारण आदि सांसारिक पापयुक्त प्रवृत्तियों को छोडकर, एकांत स्थान में साधु-वृत्ति के समान धर्म-क्रिया में आरूढ़ रहना, पौषधव्रत है। यह धर्मसाधना निराहार भी होती है, और शक्ति न हो तो अल्प प्रासुक भोजन के द्वारा भी की जा सकती है।
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