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मनुष्यत्व का विकास | १६१ का अर्थ शिक्षण अभ्यास है, जिनके द्वारा धर्म की शिक्षा ली जाय, धर्म का अभ्यास किया जाय, वे प्रतिदिन अभ्यास करने के योग्य नियम 'शिक्षाव्रत' कहे जाते हैं। पाँच अणुव्रत :
(१) स्थूल हिंसा का त्याग — बिना किसी अपराध के व्यर्थ ही जीवों को मारने के विचार से, प्राणनाश करने के संकल्प से मारने का त्याग। मारने में त्रास या कष्ट देना भी सम्मिलित है। इतना ही नहीं, अपने आश्रित पशुओं तथा मनुष्यों को भूखा-प्यासा रखना, उनसे उनकी अपनी शक्ति से अधिक अनुचित श्रम लेना, किसी के प्रति दुर्भावना ढाह, आदि रखना भी हिंसा ही है। अपराध करने वालों की हिंसा का अथवा सूक्ष्म हिंसा का त्याग गृहस्थ धर्म में अशक्य है।
(२) स्थूल असत्य का त्याग — सामाजिक दृष्टि से निन्दनीय एवं दूसरे जीवों को किसी भी प्रकार कष्ट पहुँचाने वाले झूठ का त्याग। झूठी गवाही, झूठी दस्तावेज, किसी का मर्म प्रकाशन, झूठी सलाह, फूट डलवाना एवं वर-कन्या सम्बन्धी और भूमि सम्बन्धी मिथ्या भाषण आदि अत्यधिक निषिद्ध माना गया है।
(३) स्थूल चोरी का त्याग — चोरी करने के संकल्प से किसी की बिना आज्ञा चीज उठा लेना चोरी है। इसमें किसी के घर में पाड़ देना, दूसरी ताली लगाकर ताला खोल लेना, धरोहर मार लेना, चोर की चुराई हुई चीजें ले लेना, राष्ट्र द्वारा लगाई हुई चुङ्गी आदि मार लेना, न्यूनाधिक नाप बाँट रखना, असली वस्तु के स्थान में नकली वस्तु दे देना आदि सम्मिलित हैं।
(४) स्थूल मैथुन = व्यभिचार का त्याग — अपनी विवाहिता स्त्री को छोड़कर अन्य किसी भी स्त्री से अनुचित सम्बन्ध न करना, मैथुन त्याग है। स्त्री के लिए भी अपने विवाहित पति को छोड़कर अन्य पुरुषों से अनुचित सम्बन्ध के त्याग करने का विधान है। अपनी स्त्री या अपने पति से भी अनियमित संसर्ग रखना, काम भोग की तीव्र अभिलाषा रखना, अनुचित कामोद्दीपक शृङ्गार करना आदि भी ब्रह्मचर्य के लिए दूषण माने गये हैं।
(५) स्थूल परिग्रह का त्याग — गृहस्थ से धन का पूर्ण त्याग नहीं हो सकता। अतः गृहस्थ को चाहिए कि वह धन, धान्य, सोना, चाँदी, घर, खेत, पशु आदि जितने भी पदार्थ हैं अपनी आवश्यकतानुसार उनकी एक निश्चित मर्यादा करले । आवश्यकता से अधिक संग्रह करना पाप है । व्यापार आदि में यदि निश्चित मर्यादा से कुछ अधिक धन प्राप्त हो जाय तो उसको परोपकार में खर्च कर देना चाहिए। तीन गुणव्रतः
(१) दिग्व्रत = पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओं में दूर तक जाने का परिमाण करना अर्थात् अमुक दिशा में अमुक प्रदेश तक इतनी कोसों तक जाना, आगे नहीं । यह व्रत
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