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मनुष्यत्व का विकास । १६३ |
(४) अतिथि-संविभाग व्रत = साधु श्रावक आदि योग्य सदाचारी अधिकारियों को उचित दान करना, प्रस्तुत व्रत का स्वरूप है। संग्रह ही जीवन का उद्देश्य नहीं है। संग्रह के बाद यथावसर अतिथि की सेवा करना भी मनुष्य का महान कर्तव्य है। अतिथि-संविभाग का एक लघु रूप, हर किसी भूखे गरीब की अनुकंपा बुद्धि से सेवा करना भी है, यह ध्यान में रहे।
मनुष्यता के विकास की यह प्रथम श्रेणी पूर्ण होती है। दूसरी श्रेणी साधु जीवन की है। यह साधु जीवन की श्रेणी, छठे गुण स्थान से प्रारम्भ होकर तेरहवें गुणस्थान में कैवल्य ज्ञान प्राप्त करने पर अन्त में चौदहवें गुणस्थान में पूर्ण होती है। चौदहवें गुणस्थान की भूमिका तय करने के बाद कर्म मल का प्रत्येक दाग साफ हो जाता है, आत्मा पूर्णतया शुद्ध, स्वच्छ एवं स्वस्वरूप में स्थित हो जाता है, फलतः सदाकाल के लिए स्वतंत्र होकर एवं जन्म जरा मरण आदि के दुःखों से पूर्णतया छुटकारा पाकर मोक्ष-दशा को प्राप्त हो जाता है, परम = उत्कृष्ट आत्मा परमात्मा बन जाता है।
हमारे पाठक अभी गृहस्थ हैं। अत: उनके समक्ष हम साधुजीवन की भूमिका की बात न करके पहले उनकी ही भूमिका का स्वरूप रख रहे हैं। आपने देख लिया कि गृहस्थधर्म के बारह व्रत हैं। सभी व्रत अपनी-अपनी मर्यादा में उत्कृष्ट हैं। परन्तु यह स्पष्ट है कि नौंवे सामायिक व्रत का महत्त्व सबसे महान माना गया है। सामायिक का अर्थ समभाव है। अतः सिद्ध है कि जब तक हृदय में समभाव न हो, राग द्वेष की परिणति कम न हो, तब तक उग्रतप एवं जप आदि की साधना कितनी ही क्यों न की जाय, आत्मशुद्धि नहीं हो सकती। वस्तुतः समस्त व्रतों में सामायिक ही मोक्ष का प्रधान अंग है। अहिंसा आदि ग्यारह व्रत इसी समभाव के द्वारा जीवित रहते हैं । गृहस्थ जीवन में प्रतिदिन अभ्यास की दृष्टि से दो घड़ी तक यह सामायिक व्रत किया जाता है। आगे चलकर मुनिजीवन में यावज्जीवन के लिए धारण कर लिया जाता है। अत: पंचम गुण स्थान से लेकर चौदहवें गुण स्थान तक एकमात्र सामायिक व्रत की ही साधना की जाती है। मोक्ष अवस्था में, जबकि साधना समाप्त होती है, समभाव पूर्ण हो जाता है और इस समभाव के पूर्ण हो जाने का नाम ही मोक्ष है। यही कारण है कि प्रत्येक तीर्थंकर मुनिदीक्षा लेते समय कहते हैं कि मैं सामायिक ग्रहण करता हूँ-करेमि सामाइयं-कल्पसूत्र और केवल ज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद प्रत्येक तीर्थंकर सर्वप्रथम जनता को इसी महान व्रत का उपदेश करते हैं-सामाइयाइया....... - एसो धम्मो वादो जिणेहि सव्वेहि उवइट्ठो, आवश्यक नियुक्ति। जैन दार्शनिक जगत के महान ज्योतिर्धर श्री यशोविजयजी सामायिक को सम्पूर्ण द्वादशांग जिन वाणी का रहस्य बातते हैं-सकल द्वादशाङ्गोपनिषद् भूत सामायिक सूत्रवत्-तत्वार्थटीका। अस्तु मनुष्यता के पूर्ण विकास के लिए सामायिक एक सर्वोच्च साधन है। अत: हम आज पाठकों के समक्ष इसी सामायिक के शुद्ध स्वरूप का विवेचन करना चाहते हैं।
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