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ZZZZZZZZZZZZZZZZTIZIIIIIIIIIIIIIIIIII मनुष्यत्व का विकास
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जैन धर्म के अनुसार मनुष्यत्व की भूमिका चतुर्थ गुण स्थान सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ होती है। सम्यग् दर्शन का अर्थ है—'सत्य के प्रति दृढ़ विश्वास!' हां तो सम्यक् दर्शन मानव जीवन की बहुत बड़ी विभूति है, बहुत बड़ी आध्यात्मिक उत्क्रान्ति है। अनादि काल से अज्ञान अन्धकार में पड़े हुए मानव को सत्य सूर्य का प्रकाश मिल जाना कुछ कम महत्त्व की चीज नहीं है। परन्तु मनुष्यता के पूर्ण विकास के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। अकेला सम्यक् दर्शन तथा सम्यक् दर्शन का सहचारी सम्यग् ज्ञान = सत्य की अनुभूति; आत्मा को मोक्षपद नहीं दिला सकते, कर्मों के बन्धन से पूर्णतया नहीं छुड़ा सकते। मोक्ष प्राप्त करने के लिए केवल सत्य का ज्ञान अथवा सत्य का विश्वास कर लेना ही पर्याप्त नहीं है। इसके साथ सम्यक् आचरण की भी बड़ी भारी आवश्यकता है।
जैनधर्म का यह ध्रुव सिद्धान्त है कि "ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्षः।" अर्थात ज्ञान और क्रिया दोनों मिलकर ही आत्मा को मोक्षपद का अधिकारी बनाते हैं। भारतीय दर्शनों में न्याय, सांख्य, वेदान्त आदि कितने ही दर्शन केवल ज्ञान मात्र से मोक्ष मानते हैं; जबकि मीमांसक आदि दर्शन केवल आचार = क्रियाकाण्ड से ही मोक्ष स्वीकार करते हैं। परन्तु जैनधर्म ज्ञान और क्रिया दोनों के संयोग से मोक्ष मानता है, किसी एक से नहीं। यह प्रसिद्ध बात है कि रथ के दो चक्रों में से यदि एक चक्र न हो, तो रथ की गति नहीं हो सकती। तथा रथ का एक चक्र बड़ा और एक चक्र छोटा हो तब भी रथ की गति भलीभाँति नहीं हो सकती। एक पंख से आज तक कोई भी पक्षी आकाश में नहीं उड़ सका है। अस्तु, भगवान् महावीर ने स्पष्ट बतलाया है कि 'यदि तुम्हें मोक्ष की सुदूर भूमिका तक पहुँचना है, तो अपने जीवनरथ में ज्ञान और सदाचरण रूप दोनों ही चक्र लगाने होंगे। केवल लगाने ही नहीं, दोनों चक्रों में से किसी एक को मुख्य या गौण बनाकर भी काम नहीं चल सकेगा; ज्ञान और आचरण दोनों को ठीक बराबर सदढ रखना होगा।' ज्ञान और क्रिया की दोनों पंखों के बल पर ही, यह आत्मपक्षी, निश्रेयस की ओर ऊर्ध्वगमन कर सकता है।
स्थानांग सूत्र में प्रभु महावीर ने चार प्रकार के मानव जीवन बतलाए हैं
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