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९२ । उपासक आनन्द | कहीं, और जगह रह गया। इस तरह मन अन्यत्र भटक गया, तो लड़खड़ाता हुआ श्रोता आएगा और उसकी निगाह घड़ी की तरफ रहेगी। वह घड़ी-घड़ी, घड़ी की
ओर ही देखेगा और सोचेगा--कितना समय हो गया है। जब सुनने में रस नहीं, तो मन इधर-उधर ही भागता है।
जब मन अन्यत्र भटक रहा हो, और सिर्फ कान वाणी सुन रहे हों, तो क्या रस आएगा। कल्पना कीजिए, कि आप अपना भोजन करने बैठ गए और थाल में बढ़िया मिठाई आई। आपका मन खट्टा है, भूख नहीं है, और मन प्रसन्न नहीं है, तो वह मिठाई की थाली आपको जहर जैसी लगेगी। क्योंकि मिठाई के लिए आपके मन की तैयारी नहीं है। विचार कीजिए, कि मिठाई का ग्रास मुँह में डाला, और उसी समय मन दूसरी जगह चला गया, तो क्या मिठास का अनुभव होगा। नहीं, मन खाने में लगा होगा, तो ही मिठास का अनुभव होगा। मन को एक समय में एक ही काम करना है। उसे चाहे खाने में लगाइए, चाहे और किसी काम में। सुनने में लगाइए या व्यापार में लगाइए। लगेगा वह सब जगह, मगर एक साथ दो जगह नहीं लगेगा। ___ आप देखते हैं कि मुँह में मीठा पड़ा है, और मीठा-मीठा ही है, फिर भी जब मन अन्यत्र होता है, तो मिठास का अनुभव नहीं होता। मनुष्य के मन ने यही कहा है, कि यदि मुझे यहाँ इस काम में लगा दोगे, तो यहीं और यही काम करूँगा, और वहाँ नहीं कर सकता। तुम चाहो कि मुझसे एक साथ दस काम लो, तो यह नहीं होगा। दस काम नहीं होंगे—एक ही होगा। __ यह मनोवैज्ञानिकों का कहना है-उस मिठाई से मुँह मीठा नहीं होने वाला है, जहाँ मन नहीं है। मन के अभाव में प्रभु की वाणी का रस भी प्राप्त नहीं होता है। मन अन्यत्र भटक रहा हो, भाग रहा हो, नाना प्रकार के संकल्पों और विकल्पों में उलझ रहा हो, तो कान भले वाणी सुनलें, मन नहीं सुनेगा। मन नहीं सुनेगा, तो विचार और चिन्तन भी नहीं होगा। ऐसी स्थिति में व्याख्यान या वाणी की पूरी धारा ग्रहण नहीं की जा सकती। कहीं का कोई टुकड़ा और कहीं का कोई टुकड़ा दिमाग में पड़ जाएगा, और वह बहुत गलतफहमी पैदा करेगा। ___ आपको श्रवण का आनन्द लेना है, तो मन को एकाग्र करके पूरी धारा को ग्रहण करो अन्यथा वही बात होगी कि
एक पण्डित जी रामायण बाँचा करते थे, एक श्रोता ऊँघता-ऊँघता आता, और चला जाता। उसे कोई बात ध्यान में नहीं रहती थी। एक बार सीता के हरण की बात चली। उसने ऊँघत-ऊँघते सुन लिया कि सीता का हरिण (हिरण) हो गया। वह इसी विचार में रहा, कि सीता का हरिण (हिरण) तो हो गया, देखें वह फिर आदमी
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