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| इच्छा-योग-'जहासुह' । १२९ आनन्द ने साधु बनने में अपनी असमर्थता प्रकट की, और श्रावक के व्रतों को अंगीकार करने की इच्छा प्रकट की। तब भगवान् ने यह नहीं कहा, कि भाई, साधु ही बन जाओ। यही कहा जैसी मर्जी । 'जहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह।' अर्थात् हे देवों के प्यारे ! जिस प्रकार सुख उपजे, वैसा करो, किन्तु धर्म करने में विलम्ब न करो।
भगवान् के इस इच्छा-धर्म को हम समझ लें, और इस पर चलने लगें, तो हमारी बहुत-सी जटिलताएँ खत्म हो जाएँ, हम अनेक प्रकार के साम्प्रदायिक कलह और क्लेश से छुटकारा पा जाएँ, और शान्ति प्राप्त करें।
कुन्दन-भवन ब्यावर, अजमेर
२९-८-५०
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