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जीवन के छेद। १४७ कर सकते। जो अपने ही जीवन पर अधिकार नहीं कर सकते, वे सम्पूर्ण विश्व पर कैसे अधिकार कर सकेंगे।
तीर्थंकरों को तीन लोक का नाथ कहते हैं । इसका क्या अर्थ है। क्या भगवान् स्वर्ग, नरक, पशुओं, पक्षियों आदि सब के नाथ हैं। वे सब के स्वामी कैसे हो गए । पहले वे अपने जीवन के स्वामी हुए, और फिर पिण्ड के स्वामी हुए । जो जीवन और पिण्ड का स्वामी होता है, वही ब्रह्माण्ड का स्वामी हो जाता है। कहा भी हैयत् पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे ।
अर्थात् जो पिण्ड में होता है, वही ब्रह्माण्ड में होता है, और जो ब्रह्माण्ड में होता है, वही पिण्ड में होता है। यह दर्शन का सिद्धान्त है ।
जो तू चाहता है, कि मेरा विश्व पर साम्राज्य हो, तो पहले पिण्ड पर नियंत्रण कर। अपने जीवन पर साम्राज्य स्थापित कर । अपना मन नियंत्रण में नहीं है, जबान काबू में नहीं है, और काया पर भी कब्जा नहीं है, तो तू क्या विश्व पर कब्जा कर सकेगा। जो मन का विजेता है, वही संसार का विजेता है। जो मन से हार गया, वह संसार से भी हार गया।
मनो विजेता जगतो विजेता ।
मन, वचन और काय, यही आत्मा की तीन ताकतें हैं, और जब आत्मा प्रवृत्ति के क्षेत्र में आती है; तो सीधी प्रवृत्ति नहीं कर सकती है। वह मन की लाठी उठाती है, और वचन तथा काय का सहारा लेती है और इन्हीं के जरिये अपनी प्रवृत्ति करती है । आत्मा मन की, वचन की और काया की नाली में बह कर हरकत करती है । यही तीनों छेद हैं।
इसीलिए भगवान् ने उत्तराध्ययन में कहा है, कि यह शरीर नौका है, और आत्मा मल्लाह है, और जब वह मल्लाह शरीर रूपी छेदों को बन्द कर देता है, तो वह नाव पार हो जाती है। यहाँ शरीर का मतलब जीवन है। यहाँ मन, वचन और काया की समष्टि के अर्थ में शरीर शब्द का प्रयोग किया गया है। आशय यह है, कि जीवन की नाव अगर छेद वाली है, तो वह पार नहीं हो सकती ।
भगवान् महावीर ने संघ को आज्ञा दी - हे साधुओ, और हे साध्वियो। तुम अपनी जीवन- नौका को अगर पार ले जाना चाहते हो, तो विकार, वासना और आसक्ति रूपी छेदों वाली नाव को लेकर मत चलो। चलोगे, तो पार नहीं होओगे ।
तुम अपनी वाणी से असत्य बोल देते हो, मजाक में असत्य बोल देते हो, राग, द्वेष, क्रोध और लोभ से असत्य बोल देते हो, तुम्हारी वाणी समाज में, परिवार में और घर में, जहाँ कहीं भी है, छेद डालती है, और उन छेदों से नाव भरी पड़ी है।
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